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विषय-प्रवेश
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धर्म अपने स्याद्वाद नय (अनेकान्तवाद) के द्वारा सामंजस्य उपस्थित कर देता है। यह भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति में सब जीवों के लिए समान अधिकार का पक्षपाती है तथा सांसारिक लाभों के लिए होने वाले कलह और विद्वेष को उसने पारलौकिक सुख की श्रेष्ठता द्वारा मिटाने का प्रयत्न किया है। जैन धर्म की यह विशेषता केवल सिद्धान्तों में ही सीमित नहीं रहीं। जैनाचार्यों ने ऊँच-नीच, जाति-पांति का भेद न करके अपना उदार उपदेश सब मनुष्यों को सुनाया तथा 'अहिंसा परमोधर्म' के महामंत्र द्वारा उन्हें इतर प्राणियों की रक्षा के लिए तत्पर बना दिया।
__ जैन धर्म किसी भी विषय में पूर्वाग्रह नहीं रखता। सबके साथ सहयोग एवं सहानुभूति रखता हुआ अपने तत्वों का स्पष्टीकरण करता है। महावीर के लिए जैन ग्रन्थों में 'निर्ग्रन्थी' विशेषण उनकी ग्रन्थिहीनता का सूचन करता है। प्रसिद्ध जर्मन विद्धान एवं जैन तत्वों के व्याख्याता डा. हर्मन जेकोबी का यही मानना है कि-'निर्ग्रन्थी' विशेषण से स्वयं महावीर एवं जैन धर्म की निर्ग्रन्थता स्पष्ट होती है। और 'निर्ग्रन्थिता बिना अनेकान्तवाद संभव नहीं होता। जैन दर्शन अपनी इसी विशेष विचारधारा से सबके साथ समन्वय करता हुआ भी अपना सत्व, अस्तित्व टिका पाया है। 'वीर शासन की (जैन शासन की) यह एक विशेष देन है, जो संसार के दर्शन शास्त्रों में और विचारधाराओं में अपना अद्वितीय स्थान रखती है, वह है स्याद्वाद या अनेकान्तवाद।"
जैन धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि जितनी प्रवृत्तियों पर स्थित है, उतनी ही संयम और तपश्चर्या के द्वारा आत्मिक भी है। आत्मा की गहराई में जाने का प्रयत्न ही अध्यात्म है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी होने के कारण अपने साथी धर्मों के अच्छे तत्वों को बेझिझक स्वीकार करता है और इसमें उसकी सत्यहीनता या अल्पता प्रकट न होकर समन्वयवृत्ति और उदात्त दृष्टिकोण ही प्रतीत होता है। 'संक्षेप में स्याद्वाद जैन तत्वज्ञान का अद्वितीय लक्षण है। जैन बुद्धिमत्ता का इससे अधिक सुंदर, शुद्ध और विस्तीर्ण दृष्टांत दिया नहीं जा सकता। जैन सिद्धान्त की इस शोध का श्रेय भगवान महावीर को ही दिया जाता है।' 'जैन परम्परा में साम्य दृष्टि-आचार और विचार दोनों में व्यक्त हुई है। आचार-साम्य दृष्टि ने ही सूक्ष्म अहिंसा मंत्र को जन्म दिया और विचार साम्य1. डा. हीरालाल जैन-ऐतिहासिक काव्य-संग्रह की भूमिका, पृ॰ 13. 2. निग्रर्थता-ग्रन्थिहीनता। 3. साहू शांतिप्रसाद जैन : 'अनेकान्त'-द्विमासिक, फरवरी। 4. डा. बेलवेलकर-Op.Cit., Page 114.