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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
कलापक्ष में अलंकारों की सजावट, भाषा की चमक-दमक, व्यंग्योक्ति की सूक्ष्मता, तीव्रता, छन्दों की विविधता या कला की बहार कम प्राप्त होगी।
जैन काव्य-साहित्य का भावपक्ष चाहे अति मार्मिक या छायावादी काव्य की तरह तीव्र भावानुभूतिपरक नहीं है, फिर भी प्रभावोत्पादक अवश्य कहा जायेगा। जबकि धार्मिक साहित्य होने के कारण कला पक्ष को सजाने-संवारने की आवश्यकता काव्य-सर्जकों ने तीव्र रूप से महसूस न कर सरलता-सुबोधता को ही महत्व देना अभीष्ट समझा है। डा० श्रीलालचन्द्र जैन ने पूर्णतः उपयुक्त लिखा है कि-जैन साहित्य-सर्जना की पृष्ठभूमि में साहित्यिक रुचि का इतना बड़ा योग नहीं है, जितना धर्म-भावना का। धर्म प्रेरणा ने उनकी लेखनी को साहित्य-सर्जना की दिशा दी। इसलिए उनकी किसी भी विधा की भूमिका में हमें धर्म की झांकी मिल जाती है। सच तो यह है कि जहाँ धर्म है, वहाँ जैन-साहित्य है, जहाँ जैन साहित्य है, वहाँ धर्म है। जैन साहित्य को जैन धर्म से अलग करके देखना धार्मिक और साहित्यिक दोनों दृष्टियों से अनुचित
होगा।'
__ जैन कवि प्रायः जनवाणी में अपने भावों की अभिव्यक्ति करते आये हैं। उनकी भाषा प्रायः सहज रही है। यहाँ हम आधुनिक हिन्दी जैन काव्य भाषा पर विचार कर लेना समीचीन समझते हैं। काव्य-साहित्य धार्मिक भावनाओं से प्रेरित होने पर भी साहित्यिक क्षेत्र में समकालीन नव्यताएं लेकर अवतीर्ण हुआ है, जिसके अंतर्गत विविध छंद भी हैं, राग भी हैं और भाषा का माधुर्य भी है। हाँ, क्योंकि इस साहित्य का प्रणयन प्रायः राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात एवं आगरा के आस-पास के प्रदेश में विशेष हुआ होने से वहाँ की भाषा का प्रभाव स्वाभाविक रूप से दृष्टिगत होता है। आधुनिक हिन्दी जैन काव्य की भाषा :
आधुनिक हिन्दी जैन काव्य के रचयिताओं ने अपनी रचनाओं में सरलता एवं सुबोधता को ही विशेष महत्व दिया है। सरल भाषा में रचित काव्य जन-सामान्य को अधिक बोधगम्य होता है। काव्य की भाषा गद्य की भाषा से अधिक मार्मिक तथा रसात्मक होती है, लेकिन वह कोश-भाषा नहीं होनी चाहिए। साहित्यिकता स्वीकार्य होती है, दुरुहता नहीं। लोकप्रिय काव्य के माध्यम के लिए वही भाषा स्वीकृत होनी चाहिए, जिसमें कवि अपने भावों की अभिव्यक्ति हार्दिक रूप से कर पाये। आधुनिक हिन्दी जैन काव्य के 1. डा. श्रीलालचन्द्र जैन : हिन्दी जैन ब्रज प्रबंध काव्य में रहस्यवाद, भूमिका,
पृ. 10.