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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव 401 प्रस्तुत प्रसंग के मेल में अनुरंजक अप्रस्तुत की योजना कर आत्माभिव्यंजन में सफल हुए हैं। + + + आत्माभिव्यंजन में जो कवि जितना सफल होता है, वह उतना ही उत्कृष्ट माना जाता है और यह आत्माभिव्यंजन तब तक संभव नहीं, जब तक प्रस्तुत वस्तु के लिए उसी के मेल की दूसरी अप्रस्तुत वस्तु की योजना न की जाय। मनीषियों ने इस योजना को ही 'अलंकार' कहा है। काव्यानंद का उपभोग तभी संभव है, जब काव्य का कलेवर कलामय होने के साथ अनुभूति की विभूति से संपन्न हो। जो कवि अनुभूति को जितना ही सुन्दर बनाने का प्रयास करता है, उसकी कविता उतनी ही निखरती जाती है। यह तभी संभव है, जब उपमान सुंदर हो। अतएव अलंकार अनुभूति को सरस और सुन्दर बनाते हैं। कविता में भाव-प्रवणता तभी आ सकती है, जब रूपयोजना के लिए अलंकृत और संवारे हुए पदों का प्रयोग किया जाय। दूसरे शब्दों में इसी को अलंकार कहते हैं। डा. नगेन्द्र अलंकारों की उपयोगिता के संदर्भ में लिखते हैं-भाषा में अलंकारों की उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अलंकार जहाँ भाषा की सजावट के उपकरण होते हैं, वहाँ वे भावोत्कर्ष में भी सहायक होते हैं। उनकी एक मनोवैज्ञानिक भूमि होती है। वे कथन में स्पष्टता, विस्तार, आश्चर्य, जिज्ञासा कौतूहल आदि की सर्जना करते हैं। वस्तुतः 'अलंकार केवल वाणी की सजावट के ही नहीं, भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार है। भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान है। हिन्दी जैन काव्य-साहित्य भावपक्ष से जितना समृद्ध है-भावों में भक्ति, स्तुति का रागात्मक प्रवाह है, तो दार्शनिक विचारधारा व चिंतन का गंभीर सागर भी है-उतना ही उसका कला-सौष्ठव प्रशंसनीय कहा जा सकता है। भावों के लिए जैन दर्शन व भक्ति की एक सुनिश्चित सीमा-मर्यादा होने पर भी उत्तम भाव सृष्टि खड़ी की है, जब कि भाषा, अलंकार, छंद, सूक्ति-प्रयोग आदि के लिए कोई मर्यादा नहीं हो सकती। हाँ, एक बात अवश्य है कि जैन विचारधारा से सम्बंधित इन काव्यों में मुक्त शृंगार, आनंदोल्लास, मस्ती व प्रेमादि की चर्चा न होकर वैराग्य, सत्य, संयम, अपरिग्रह, भक्ति आदि से सम्बंधित धार्मिक, तात्त्विक विचारधारा को यथा-शक्य कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है। जैन समाज में प्रचार-प्रसार का उद्देश्य इन कवियों का होने से स्वाभाविक है कि 1. डा. नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 63, 64. 2. डा. नगेन्द्र : रीति काव्य की भूमिका, पृ. 86. 3. पंत-पल्लव-प्रवेश, पृ. 22.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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