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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
अपेक्षा रखी जाती है, ठीक उसी प्रकार उन तीव्रानुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए चमत्कारपूर्ण अलंकार शैली की भी आवश्यकता बनी रहती है। कलात्मक पक्ष व भावात्मक पक्ष दोनों की अनिवार्यता काव्य को सप्राण व रोचक बनाने के लिए रहती है। काव्य-देह को सजाने-संवारने का मुख्य भार अलंकार पर रहता है लेकिन अधिक अलंकारों की सज्जा से काव्य की सुन्दरता विकृत हो जाती है, जिस प्रकार अधिक अलंकारों के बोझ से नारी की सहज स्वाभाविक सुंदरता नष्ट होकर कृत्रिम-सी दिखाई पड़ती है। अतः अलंकार बाह्य सज्जा रूप होने पर भी काव्य के लिए साधन है, साध्य नहीं। जब उसे साध्य मानकर कवि अलंकारों का अधिकाधिक प्रयोग करता है, तब वह (बोझ) घातक सिद्ध होते हैं। उनकी मान्यता और उनका चमत्कार स्वयं एक पृथक आकर्षण का कारण बनकर काव्य के मूल तथा मुख्य सौंदर्य की ओर से हमारी दृष्टि को खींच लेता है। अलंकार काव्य के सौंदर्य में वर्द्धन करने के स्थान पर स्वयं सौंदर्य का आश्रय बनकर काव्य के सौंदर्य को गौण बना देता है। अतः उनका अल्प व अनुरूप होना आवश्यक है। अनुरूपता, अल्पता व सुसंगति के द्वारा अलंकार कविता-कामिनी के सौंदर्य का संवर्द्धन कर सकते हैं। काव्य के अलंकारों में अर्थालंकार ही अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। अर्थ शब्द के आन्तरिक चिन्मय तत्त्व हैं। अतः अर्थालंकार काव्य की आत्मा से सम्बंधित है। आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति में और आनंद वर्द्धन ने ध्वनि में समस्त अर्थालंकार का अन्तर्भाव करने का प्रयत्न किया है। काव्य के व्यक्तित्व के सौंदर्य विधान एकाकार होकर ही अलंकार सौन्दर्य के साधक हो सकते हैं। अतः संतुलन, सामंजस्य, विविधता, वैचित्र्य के अनुरूप ही अलंकारों का प्रयोग उचित है। अलंकार की विशेषता के संदर्भ में आचार्य शुक्ल ने यथार्थ ही लिखा है कि-भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं का रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होनेवाली युक्ति ही अलंकार है।' अलंकारों की महत्ता पर अपने विचारों को वाणी प्रदान करते हुए डा० नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं-कवि की प्रतिभा प्रस्तुत की अभिव्यंजना पर निर्भर है। अलंकार इस दिशा में परम सहायक होते हैं। मनोभावों को हृदय-स्पर्शी बनाने के लिए अलंकारों की योजना करना प्रत्येक कवि के लिए आवश्यक है। जैन कवियों ने प्रस्तुत के प्रति अनुभूति उत्पन्न करने के लिए जिस अप्रस्तुत की योजना की है, वह स्वभाविक एवं मर्मस्पर्शी है, साथ ही प्रस्तुत की भांति भावोद्रेक करने में सक्षम भी। कवि अपनी कल्पना के बल से
1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : चिन्तामणि-भाग-2, पृ. 183.