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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव 397 और अधिक श्रम साध्य समझा जाता है, परन्तु वह वस्तुतः कवि के व्यक्तित्व और उसके मनः संगठन से अनन्यतः सम्बंधित होता है। वस्तुतः भाव पक्ष से कला पक्ष का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, क्योंकि भाव की तरलता, गहनता और अनन्यता के रूप में भी कला पक्ष में विशद्, संकोच अथवा गूढ़ता का योग हो जाता है।" काव्य के बहिरंग या कला पक्ष के विविध प्रमुख अंग रूप भाषा, छंद, अलंकार व गुण के सम्बंध में थोड़ा बहुत विचार करना अनुचित न रहेगा। भाषा व शैली : काव्य के कला पक्ष में भाषा का महत्वपूर्ण स्थान सर्व-स्वीकृत है। बिना भाषा काव्य का सृजन संभव नहीं हो पाता। "भाषा भाव और विचारों को स्पष्ट रूप में रखने का साधन है, इसलिए वह स्वच्छ होनी चाहिए, कारीगरी से रहित।" भाषा रूपी देह में काव्य की आत्मा रूप व्यंजना प्राणों का स्पन्दन है। शब्द-देह काव्यात्मकता का मंदिर होने से किसी प्रकार गौण या कम हित्वपूर्ण नहीं होता। शब्दों का सौष्ठव काव्य की (भावगत चेतना) आत्मा के सौंदर्य की अभिव्यक्ति के अधिक अनुकूल होता है। काव्यांग के सहज सामंजस्य को कला-सौष्ठव भी कहा जाता है। आनंदबर्द्धन के विचार में 'शब्दों के अंग-सौष्ठव से काव्य के रस और सौंदर्य की व्यंजना होती है।' भाषा ही भावों की अभिव्यक्ति का परमावश्यक साधन है। काव्य के भीतरी तत्त्व भाव, व्यंजना, ध्वनि, रस के साथ बाह्य तत्त्व के लिए प्रमुख भाषा के साथ छंद, अलंकार, गुण-नाद आदि का अत्यन्त महत्व होता है। भाषा रूपी देह के बिना भाव रूपी आत्मा संस्थित नहीं हो सकती। साथ ही काव्यानंद की उपलब्धि के लिए अलंकार, छंद-नादयोजना का साथ महत्वपूर्ण है। डा० नगेन्द्र के विचारों में-"काव्य की भाषा सहज, पात्र एवं प्रसंग के अनुकूल, मूर्ति विधाविनी और मधुर होनी चाहिए"। कवि की भाषा में हृदय के भावों को संस्पर्श करने की पूरी क्षमता होनी चाहिए। इसी में कवि की भाषा का सार्थक्य है, काव्य की उत्कृष्टता है। "भाषा की भांति शैली की सरलता, सबोधता एवं स्वच्छता पर भी विद्वानों ने बल दिया है। सरल शैली सार-ग्राहिणी सामर्थ्य रखती है, इसी के द्वारा कविता लोक-सामान्य भाव भूमि पर प्रतिष्ठित होती है और व्यापक प्रभाव 1. हिन्दी साहित्य कोश, पृ. 202-203. 2. आ. रामचंद्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 146. 3. डा. नगेन्द्र-'साकेत-एक अध्ययन', पृ. 155.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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