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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
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छंद, अलंकार, बिंब-प्रतीक आदि के सुचारु व समुचित उत्पन्न करती है। "" विधान से शैली को उत्कर्ष प्राप्त होता है। " उचित शब्द चयन ही कविता की वास्तविक कला है और इसके बिना उसमें कलात्मकता आ नहीं सकती । ' भाषा को काव्य या साहित्य का व्यावहारिक पक्ष कहा जा सकता है। लयबद्ध, नादानुकूल, आलंकारिक व व्यंजक भाषा आदर्श काव्य-भाषा कही जाती है। भाषा भावाभिव्यक्ति का एक प्रबल व प्रमुख साधन है। व्यक्ति के मन, संघटन एवं स्वभाव का परिणाम ही उसकी भाषा-शैली है। अतः भाषा-शैली में व्यक्तित्व का संपूर्ण प्रकाश होता है और उसके माध्यम से व्यक्तित्व का अध्ययन भी हो सकता है। व्यक्ति निष्ठ होने के कारण ही साहित्य के बोध पक्ष और रूप पक्ष को अलग करना संभव नहीं है, क्योंकि भाषा और विचार अन्योन्याश्रित है। भाषा का सामर्थ्य उसकी व्यंजना शक्ति में है। इसी व्यंजना तत्त्व के पोषण से अर्थ गौरव की सृष्टि होती है। रीति और गुण भाषा के ही तत्त्व होते हैं। प्रसाद, ओज और माधुर्य अथवा वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली के रूप में प्राचीन काव्यशाला ने जिन भाषा - तत्त्वों की ओर संकेत किया था, वे सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। इन्हीं के व्यक्तिगत प्रयोग से विशिष्ट लेखन शैली का निर्माण होता है। भाषा शैली की भिन्नता के कारण ही एक ही विषय पर लिखी गई कृतियों में सहज अन्तर संभाव्य होता है तथा शैली की उत्कृष्टता - निकृष्टता पर कृति का मूल्यांकन आधारित रहता है। इसीलिए तो कहा गया है कि शैली ही व्यक्तित्व है । (Style is a man ) अत: शैलीगत विशेषताएं ही व्यक्तिगत विशेषता सिद्ध होती है। प्रत्येक कवि की भाषा शैली में स्वाभाविक अन्तर पड़ जाने से कवियों का भी विभिन्न स्तर निर्णीत होता है। हाँ, एक दूसरे का प्रभाव ग्रहण करने की दृष्ट - अदृष्ट परम्परा अवश्य रहती है। छन्द :
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भाषा की तरह छंद - योजना का महत्व काव्य में लय, गति व नाद के लिए अपेक्षित है। छंद-विधान नाद - सौंदर्य पर अवलंबित होता है। यह बाहरी वस्तु न होकर काव्य में आत्म विभोरता व सजीव आत्मभिव्यंजना के लिए शास्त्रीय विधान है। यह विधान काव्य के लिए बंधन न होकर लय- सौंदर्य की वृद्धि व पोषण के लिए आधार शिला है। साधारण गद्य की भाषा से काव्य की एक पंक्ति में भी, भावविभोरता, प्रवाह व नाद - सौंदर्य होने से पाठक को आनंद विभोर बना देता है। कवि लय और छंद के माध्यम से अपने अन्तर्जगत के
1. आ० नंददुलारे वाजपेयी - हिन्दी साहित्य - बीसवीं शताब्दि, पृ० 22. 2. दिनकर : मिट्टी की ओर, पृ० 152.