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________________ विषय-प्रवेश ____17 संस्कृति की ये दो ऐसी आलोक-रेखाएं है, जिनसे जीवन के वास्तविक मूल्यों को देखने का अवसर मिलता है।" प्राचीन ग्रंथ 'तत्वार्थवार्तिक' में भी सबके प्रति प्रेमपूर्ण अहिंसात्मक आचरण की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है, जैसे कि-'हिंसा नृतस्तेयाब्रह्य परिग्रहे भ्यो विरतिः व्रतम्। अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रहों से विरक्त होना ही व्रत है। इन्हीं व्रतों का आचरण अपने दैनिक जीवन में करने का आदेश जैन धर्म देता है। प्राणीमात्र के प्रति मन, वचन और कर्म से निरुपद्रवी होना ही अहिंसा की सूक्ष्मता एवं महानता हैं। अहिंसा का विकास इन्द्रिय और मन के संयम के आधार पर ही हो सकता है। इसीलिए अहिंसा के साथ संयम को जैन धर्म काफी महत्व देता है। करुणापूर्ण व्यवहार ही अहिंसा का मार्ग प्रशस्त करता है। भगवान महावीर ने अहिंसा के साथ ही प्राणीमात्र के प्रति करुणाभाव को निरन्तर व्यक्त किया है। अहिंसात्मक करुणापूर्ण व्यवहार का संदेश देनेवाले श्रमण संस्कृति के उस युग को यदि तत्कालीन इतिहास में स्वर्णकाल कहा जाये तो भी अनुचित नहीं होगा। कभी-कभी जैन धर्म की इस विशद् अहिंसा पद्धति एवं अहिंसापूर्ण जीवन पर लांछन लगाया जाता है कि इसी के कारण जैन धर्म ने अपने समाज को कायर और भीरु बना दिया है और पलायनवादिता का ही दूसरा नाम अहिंसा है। यह भी कहा जाता है कि जैन धर्म अहिंसा की सूक्ष्मता के कारण जगत में टिक नहीं पायेगा या तो वह राष्ट्र को गुलामी, अकर्मण्यता और दारिद्र के प्रति खींच जायेगा। यह केवल एक भ्रम मात्र है। इस प्रकार की गैर समझ के लिए जैन तत्वों की हार्दिकता एवं उच्चता का पूरा ख्याल नहीं है। लेकिन जैन धर्म की अहिंसा कायरों की अहिंसा नहीं हैं, वह तो वीरात्मा का आत्मबल है, जो जगत के सभी अनिष्ट बलों से उच्च होता है।" वास्तव में जैन धर्म की अहिंसा, समताभाव, सहानुभूति एवं करुणायुकत व्यवहार के लिए सबको अपील करता है। अहिंसा के फलस्वरूप विश्व-बन्धुत्व की उदात्त भावना जैन धर्म ने आत्मसात् करके विश्व को उसकी पहचान दी। अहिंसा तत्व के बल पर जैन धर्म ने अपना अस्तित्व एवं महत्व बनाये रखा। अहिंसा के आदर्श ने जैन धर्म में उदारभावना के साथ शुद्ध अंत:करण से किये गये प्रायश्चित के महत्वपूर्ण तत्व को भी स्थान दिया है। जैनों की अहिंसा में कहीं भी कायरता 1. द्रष्टव्य-भट्टअकलंक कृत तत्वार्थवार्तिक-पृ. 725. 2. आ. नथमलमुनि-जैन धर्म और दर्शन-पृ. 126. 3. Shri-C.J. Shah- 'Jainism in North India'- page-47.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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