SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य का नाम नहीं है। यदि अहिंसा कायरता को जन्म देती तो वह भगवान महावीर को कभी ग्राह्य न होती। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और तपस्या ये प्रमुख तत्व जैन धर्म के व्यवहारिक एवं दार्शनिक पक्ष को अपने भीतर समेटते हुए हैं। अहिंसा और सत्य साधना को जीवन व्यापी बनाने का श्रेय 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ को है। इसकी जानकारी हमें उनके लिए प्रयुक्त 'पुरुषदायीणम्' (पुरुषदानी) विशेषण से प्राप्त होती है। जैन धर्म की यह महानता या विशेषता कहिए कि भगवान पार्श्वनाथ के समय से ही तीनों प्रकार की मानसिक, वाचिक और कायिक अहिंसा को इतना महत्व दिया गया था कि पार्श्वनाथ को ही इसको सुसम्बंधित सामाजिक स्वरूप देने का प्रयास करना पड़ा था। उन्होंने अहिंसा के लिए जड़ मान्यता को स्वीकृति नहीं दी। पार्श्वनाथ ने अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के सिद्धान्त को भी जोड़ दिया, जिसके फलस्वरूप अहिंसा अब तक साधु मुनियों तक सीमित थी, वह अन्य तीन तत्वों की वजह से समाज में भी लोकाचरण के लिए स्वीकार्य हो गई। अतः सामाजिक और व्यावहारिक अहिंसा का फैलावा बढ़ गया। भगवान महावीर ने स्वयं अहिंसा के लिए कहा है कि-'तुंग न मंदराओ, आकाअसो विशालय नत्थि जर तरें जयति नाणसु, धम्महिं सासमं नत्थि।।' अर्थात् जैसे जगत में मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।' जैन धर्म-दर्शन अपने अहिंसात्मक दृष्टिकोण के कारण तर्क के तीखे बाणों का कभी प्रयोग नहीं करता, और न ही अनेकान्त दृष्टिकोण का कवच पहनने से दूसरों के व्यंग्य या तर्क के तीखेपन से आहत होना चाहता है। जैन दर्शन में तर्क-सत्य की अपेक्षा अनुभव-सत्य को विशेष महत्व दिया जाता है। तर्क-व्यवहार की भूमिका उपकरण है, सत्य और अहिंसा वास्तविकता की गहराई में जाकर साध्य बन जाता है। इसीलिए जैन दर्शन कोरा दर्शन मात्र न होकर दर्शनों का समुच्चय है। एक बात अवश्य सिद्ध हो चुकी है कि अहिंसा कायरता को पैदा नहीं करती, बल्कि तेजस्विता को आविर्भूत करती है। इस संबध में मुनि नथमल जी का कहना उचित ही है कि 'जैन धर्म के अहिंसा सिद्धान्त ने भारत को कायर बनाया, यह सत्य से बहुत दूर है। अहिंसक कभी कायर नहीं होता। (राष्ट्रपिता पू. गांधी जी के दृष्टान्त से हम भलीभांति परिचित हैं) यह कायरता और उसके परिणाम स्वरूप परतंत्रता हिंसा के उत्कर्ष से, 1. द्रष्टव्य : डा. भागचन्दस्वरूप-'जैन साहित्य का स्वरूप' शीर्षकस्थ लेख___ वीरपरिनिर्वाण' पत्रिका, पृ० 11, जून 77 अंक 1, 2.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy