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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित शाश्वत सत्यों का ह्रास आज भी नहीं हुआ है, बल्कि आधुनिक युग की परिस्थितियों के संदर्भ में इन तत्वों की उपयोगिता और महत्व और भी बढ़ गया है। विश्व आज शान्ति और अहिंसा का महत्व महसूस करने लगा है और अणु बम के डर से आक्रान्त है, तब भगवान महावीर ने तो आज से 2500 वर्ष पूर्व ही हिंसा का घोर विरोध कर अहिंसा व शांति की अनिवार्यता और महत्ता स्वीकारने का हार्दिक अनुरोध अपने समाज को किया था। आचार्य मुनि नथमल जी योग्य ही लिखते हैं कि-" भगवान महावीर के सापेक्षता, सहअस्तित्व, अहिंसा, मानवीय एकता, निःशस्त्रीकरण, स्वतंत्रता एवं अपरिग्रह के सिद्धान्त विश्वमानस में निरंतर विकसित होते जा रहे हैं। जैन विचारधारा की बहुमूल्य देन संयम है। 'एक ही साथै, सब साधै' संयम की साधना हो तो सब सध जाते हैं, नहीं तो नहीं। 'जैन विचारधारा इस तथ्य को पूर्णता का मध्यबिंदु मानकर चलती है। अहिंसा इसी की उपज है, जो 'जैन-विचारणा' की सर्वोपरि देन मानी जाती है। (सव्वे पाण। सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हन्तवा, न अज्जा वैयव्वा न परिचेतव्वा न परियावेयव्वा न उद्देवेयव्वा। एस धम्मे सुद्धे नितिए सासए। आचारांग सूत्र-2)। अहिंसा, सत्य और अस्तेय (अचौर्य) :
ब्राह्मण धर्म के यज्ञ-याग में होती हिंसा के विरुद्ध जैन धर्म का विकास हुआ था। जैन दर्शन का मूलभूत तत्व अहिंसा है, जिससे स्वीकार किया जाता है कि प्राणीमात्र की रक्षा करना और किसी को भी मनसा, वाचा और कर्मणा क्लेश न पहुंचाया जाय। वैसे अहिंसा के सम्बन्ध में जैन धर्म ग्रन्थों में सूक्ष्मता से चर्चा की गई है। गृहस्थों के लिए एवं विरक्त साधुओं के लिए अहिंसा के सूक्ष्म भेदोपभेद किये गये है। भगवान महावीर प्रेम, करुणा और क्षमा की साक्षात मूर्ति होने से परीक्षणकाल में उनको हिंसक पशुओं एवं अज्ञानियों के द्वारा अनेक कष्ट सहन करने पड़े, फिर भी सागर की तरह उदारमना रहकर उन्होंने क्षमादान दिया तथा समाज में अहिंसा तत्व का उपदेश दिया। अहिंसात्मक व्यवहार के कारण ही साधना की हार्दिक अनुभूति की अभिव्यक्ति को पूर्ण स्वरूप में केवल महावीर ही उपलब्ध कर सके थे, जबकि अनुभूति की पूर्णता को अनेक धार्मिक व्यक्ति प्राप्त कर सकी हैं। 'अहिंसा और मुक्ति श्रमण
1. मुनि नथमलजी-जैन दर्शन : मनन मीमांसा, पृ॰ 190. 2. मुनि नथमलजी-जैन धर्म और दर्शन, पृ० 126.