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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
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लेकिन जीवनी की तरह क्रमबद्धता न रहकर केवल आलोकमय क्षणों का ही इतिहास अंकित है। अहिंसा मलक आचार से आर्य भूमि को पवित्र करने जैन मुनियों ने मानव को हिंसक पशु-वृत्तियों से ऊपर उठाकर मानवता की दयामयी स्नेहसिक्त आधारशिला पर प्रतिष्ठित किया है। अहिंसा का संदेश फैलाने वाले मुनि श्री जहाँ कहीं विहार करते, सभी को प्रेम से मिलते, उनके सुख-दुःख की बातें सुनते, उनको सत्य और अहिंसा का दीपक हाथ में बताकर ज्ञान का उजाला फैलाते थे। सादगीपूर्ण रहन-सहन एवं कष्ट सहिष्णु भी उतने ही थे। केवल मंच पर बैठकर ही उनको व्याख्यान देने श्रेयस्कर नहीं था, बल्कि मीलों के मीलों 'पैदल चलकर श्रमिक, पीड़ित जनता के दुःख-दर्द पर अपनी शान्त, शीतल प्रेमपूर्ण वाणी का चंदन लेप लगाते थे। बच्चों को भी प्यार से मिलते थे। आत्मध्यानी, तपस्वी के साथ-साथ सामाजिक उत्थान, दु:खी प्राणियों के अभ्युदय के लिए सदैव चिंतित रहते थे। वे दक्षिण भारत के ब्राह्मण कुल के थे, लेकिन कितनी ही पीढ़ी से उनके परिवार में जैन धर्म का पालन होता आ रहा था। अत: मुनि श्री को भी बचपन से जैन धर्म के महान तत्त्वों एवं तीर्थंकरों की मानसिक व शारीरिक तपस्या के द्वारा जितेन्द्रिय बनाने की कर्म साधना के प्रति आकर्षण हो जाने से छोटी उम्र में वैराग्य ग्रहण कर आत्मा के साथ अन्य जीवनों के कल्याण में रत हो गये। मलयालम, संस्कृत, मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषा के ज्ञाता एवं उच्च कोटि के विद्वान् हैं। संस्कृत भाषा पर उनका अद्वितीय अधिकार है। संस्कृत भाषा में उन्होंने बहुत से जैन तीर्थंकरों की स्तुति प्रार्थना भी लिखी है, जो निश्चय ही उनके हृदय की विशालता, सर्वभूतों की मंगल कामना एवं जैन धर्म के प्रति अगाध आस्था की द्योतक है। .
_ 'वे आत्मार्थी है, आत्मा अनुसंधानी है और समाज हित में भी बड़े चौकस और अनासक्त वृत्ति से चल रहे हैं। उनकी मुस्कान में समाधान है और वाणी में समन्वय का अनाहत नाद है। उनका हर कदम मानवता की मंगल मुस्कुराहट है और हर शब्द जीवन को दिशा-दृष्टि देनेवाला है। हम कहते हैं कि वे भुजंगी विश्व के बीच चंदन के बिरछ है, अनंत सुवास के स्वामी।' आदर्श रत्न : ___ मुनि श्री रत्न विजय जी महाराज की जीवनी उनके शिष्य आचार्य देवगुप्त सूरि ने लिखी है। गुरु-शिष्य दोनों प्रारंभ में श्वेताम्बर संप्रदाय के स्थानकवासी शाखा के साधु थे, बाद में मूर्तिपूजक संप्रदाय में श्रद्धा बैठने से उसमें दीक्षा ग्रहण की थी। लेखक स्वयं जैन दर्शन के विद्वान आचार्य है एवं अपने गुरु के प्रति अत्यन्त श्रद्धा व प्रेम है, जो अनेक जगह व्यक्त होता है। प्रारंभ में कच्छ