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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
ईस्वी 1930 में प्रकाशित इस जीवनी के नायक का जन्म संवत् 1944 में भोपाल में हुआ था एवं मृत्यु सं० 1993 में आरोह में हुई थी।
जीवनी के प्रारंभ में पार्श्व प्रभु के चरण कमलों की वंदना की गई है, जिसमें सुंदर विनयभाव झलकता है। विशेष अलंकारों का मोह रखे बिना, केवल प्रास-अनुप्रास की छटा में जैन धर्म के तत्त्वगत वैराग्य, राग द्वेष रहित भाव, सद्गुण ज्ञान, दीक्षा आदि की चर्चा चरित नायक के क्रमिक विकास के साथ-साथ की गई हैं
धर्म के शुभ तत्त्व को गुरु, नित्य देते ज्ञान से। आत्म नैया पार होती; विश्व में यश नाम से। (पृ. 40)
चरित-नायक को जैन धर्म के प्रति अनंत श्रद्धा एवं प्यार होने से क्रमशः जैनों की अल्प होती जा रही संख्या से वेदपना अनुभव करते हुए वे लोगों की जैन धर्म के प्रति श्रद्धा बढ़ाने के लिए सतत् परिश्रम शील रहे थे। इसीलिए साहित्य मंडल, श्राविकाश्रम, जैन गुरुकुल, शिशु-विश्राम केन्द्र आदि की स्थापना करवाते रहें तथा जैन समाज के सामाजिक कल्याण की प्रवृत्ति में लीन रहते थे। मुनि विद्याविजय जी ने भूपेन्द्र सूरि के शील-गुण, सादगी, उच्च चरित्र, ज्ञान पिपासा एवं जैन धर्म के विकास के लिए प्रशंसनीय प्रवृत्तियों का आकर्षक वर्णन किया है। इसी पुस्तिका में अंत में मुनि कल्याणविजय जी द्वारा संस्कृत भाषा में 'भूपेन्द्र सूरि गुण गुणाष्टकम्' भिन्न-भिन्न विविध छंदों में लिखा गया है। मुनि श्री विद्यानन्द जी' :
लेखक संपादक जयप्रकाश वर्मा ने इसमें मुनि श्री के जीवन के पावक प्रसंगों को निबंध स्वरूप में लिपिबद्ध किया है। प्रारंभ में परिचय देने के बाद जीवनीकार की महत्ता, विशेषता तथा लोक कल्याण की भावना को उजागर किया है। भाषा अलंकार रहित होने पर भी रोचकता का पूर्ण निर्वाह किया गया है। ___जीवनी नायक दिगंबर संप्रदाय के विद्वान साधु हैं और साथ ही हिन्दी जैन साहित्यकार भी हैं। लेखक को उनके साथ जो पावन समय व्यतीत करने का पुण्य अवसर मिला था या उनसे भेंट-मुलाकात होती रही थी, उन्हीं पावन क्षणों के पुनीत यादों-संस्मरणों का आलेखन लेखक ने किया है। मुनि जी के विचार, धर्म सम्बंधी मान्यता, शीतल प्रेम युक्त वाणी आदि का वर्णन किया है। इसको निबंध संग्रह या व्याख्यान संग्रह न कहकर मुनि श्री की जीवनी कह सकते हैं, 1. प्रकाशक-लोकोपकारी पुस्तकालय।