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________________ - गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु आधुनिक हिन्दी - जैन 377 धर्म सूरि' नाम से प्रसिद्ध हुए। प्रारंभ में काशी - बनारस और कलकत्ता उनका कार्यक्षेत्र रहा। बाद में गुजरात एवं सौराष्ट्र की ओर विहार प्रारंभ किया । बनारस में गऊघाट पर एक पशुशाला उनके प्रयत्नों से बनवाई गई। उस समय के अधिकारियों तथा स्थानों के नाम से चरित्र नायक के सम्बंधों का जीवनी में निश्चित वर्णन करने से सच्चाई में संदेह नहीं रहता। शासक वर्ग के अधिकारियों का परिचय भी प्राप्त होता है। जीवन लेखक ने चरित्र नायक के सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों का संवत्, स्थानों में प्रामाणिक उल्लेखों के साथ वर्णन किया है। अपनी विद्वता के कारण उनको 'ऐशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल' के एशोसिएट मेम्बर बनाये गये। आचार्य महाराज ने बहुत-से जैन धर्म के ग्रन्थों की रचना की ओर बहुत-से ग्रंथों का संपादन भी किया। करीब-करीब 24 ग्रंथों का प्रणयन गुजराती, संस्कृत, इंग्लिश, हिन्दी और मराठी भाषा में किया था। इस पर से उनकी विद्वता एवं बहुज्ञता का परिचय भी प्राप्त होता है। सन् 1922 में ग्वालियर के शिवपुरी नामक गांव में उनका देहविलय हुआ- जैन धर्म व समाज पर अनंत उपकार करते जाने से उनका नाम और कार्य अमर हो गया। जीवनी लेखक की भाषा साहित्यिक हिन्दी है तथा तथ्यों के बारे में लेखक सतर्क रहे हैं कि कहीं केवल गुण स्तुति न करके कमियों का उल्लेख करना भी चूके नहीं हैं। जैन समाज में ही नहीं वरन् पूरे भारत एवं पश्चिम के विद्वानों में भी धर्मविजय सूरि जी की ख्याति फैल चुकी है। अतएव, ऐसी जीवनी का अपना महत्व भी होता है। न केवल जैन धर्म के प्रसार-प्रचार में अग्रदूत आचार्यों का जीवन परिचय प्रकाश में लाने की वजह से ही नहीं, बल्कि जैन साहित्य के दृष्टिकोण से भी ऐसी जीवनियों का काफी महत्व है। 3) श्री भूपेन्द्र सूरि : जैन-संप्रदाय के युवा कवि और लेखक मुनि श्री विद्याविजय जी ने जैन धर्म व समाज के विद्वान मुनि श्री भूपेन्द्र सूरि जी की जीवनी गीतिका छंद में अंकित की है। इसकी विशेषता यह है कि इसको वाद्यों के साथ गाया जा सकता है। जीवनी की भाषा सुन्दर व शैली रोचक है। नायक के जीवन में मानव मात्र के कल्याण की भावना अभिव्यक्त होती है। प्रारंभ में लेखक ने चरित्र- - नायक की जन्मभूमि भोपाल, माता-पिता, भाई-बहन आदि का सुंदर परिचय दिया है। भोपाल नगरी का सुन्दर वर्णन करते हुए लेखक कहते हैंथी नगरी भोपाल की अति, चारुता उस काल में, पूर्ण था धन-धान्य से वह ओर मंगल भाल में। एक्यता का पाठ पढ़ती, वीर रस के वास में।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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