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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
भूमि की विशेषता व धार्मिक परिस्थिति का वर्णन करने के पश्चात् जीवनी-नायक के परिवार का परिचय देते हुए लिखा है कि-कच्छ के महापुर (अब 'मापड़') नगरी के धार्मिक दृष्टि वाले शेठ श्री गोविन्दशी की पत्नी हंसाबाई की कुक्षि से बहुत बड़ी उम्र में रत्तचन्द्र का जन्म हुआ था। जन्म पूर्व हंसाबाई को स्वप्न में रत्नों का ढेर दिखाई पड़ा था, अत: बालक का नाम 'रत्न चन्द्र' रखा गया। बचपन से ही बालक का धर्म के प्रति अत्यन्त अनुराग था। बचपन से चतुर और विचारशील होने से धर्म की चर्चा के साथ हिंसा-अहिंसा की सूक्ष्म बातें वे अपनी माता व गुरु से करते रहते थे। धर्म के प्रति लगन एवं संसार के प्रति विरक्ति होने के कारण माँ से आज्ञा लेकर दीक्षा लेना चाहते थे। 11 साल का बच्चा दीक्षा में क्या समझेगा, अत: माँ ने मजाक में कहा 'पर बेटा! तू अकेला दीक्षा लेगा तो तेरी साज-संभाल कौन करेगा अत: तेरे पिता जी को कह दे कि तेरे साथ वह भी दीक्षा ले लें।" मजाक में की गई बात सत्य ठहरती है। गोविन्दश्री शेठ धर्म के प्रति अत्यन्त श्रद्धावान् तो थे ही, पत्नी की हंसी-खुशी से इजाजत मिलने पर पिता-पुत्र ने सचमुच दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। बाद में तो हंसाबाई ने अत्यन्त विरोध किया, लेकिन दोनों का दृढ़ निर्णय देखकर उनको सम्मति देनी पड़ी। दीक्षा के बाद तीव्र ग्रहण शक्ति तथा सूक्ष्म याद शक्ति से आगम ग्रन्थों, सूत्रों का और अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने के उपरांत आगम ग्रंथों पर लिखी गई टीकाएँ, व्याकरण आदि पढ़ने के लिए संस्कृत भाषा सीख ली। जैन ग्रंथों के अलावा अन्य धार्मिक ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया। बहुविज्ञ होने से उनका व्याख्यान भी गंभीर ज्ञानपूर्ण रहता था तथा शैली आकर्षक रहती थी। गुरु वंदना, सज्जाई, स्तवन के विषय में अनेक कविताएँ भी लिखी, जिनका संकलन भावनगर के वकील नेमिचन्द्र ने 'रत्न मुनि कृत काव्य-संग्रह' नाम से किया है। तथैव 'मुनिपति चरित्र' और 'मदनयनवेद चरित्र' की संस्कृत-श्लोक-वद्ध में रचना की थी। मुनि श्री को हरिजनों के प्रति अपार प्रेम था। उनको वे सलाह-मशवरा देते, उनके व्यसनों को छुड़ाने की कोशिश करते। उनकी मान्यता थी कि जैन समाज तो बहुत सुन चुका है, सुनानेवाले भी बहुत हैं, लेकिन हरिजनों को सुनने-सुनाने की विशेष आवश्यकता है। अतः सरल भाषा में भजन बनाकर भी उन्हें सुनाते थे। रत्नविजय जी महारज ने घोर-प्रचण्ड-एकाग्रता से 'आतापना' लेकर दिव्य सिद्धियाँ हांसिल की थी, ऐसा जन समुदाय का मानना है। वैशाख-जेठ की असह्य गरमी में गर्म रेत पर दो-तीन घण्टे सोकर सूर्य की आग सहते थे और 1. आदर्श रत्न: मुनि श्री देवगुप्त सूरि, पृ. 24.