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आधुनिक हिन्दी - जैन- गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
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बता देते हैं। स्वभावतः उनका अधिक ध्यान जैन इतिहास और परंपरा की ओर गया है। जैन शास्त्रों के वे अच्छे ज्ञाता भी हैं। फिर भी उनकी दृष्टि बहुत ही व्यापक और उदार है। उनका ऐतिहासिक ज्ञान बहुत गंभीर है। वस्तुत: इस समय जैन परंपरा के अधिक आलोड़न की आवश्यकता भी है। कम लोग पुरातत्व के जैन पहलू का परिचय रखते हैं। इसलिए मुनि जी का कहने का ढंग भी बहुत ही रोचक है। बीच-बीच में उन्होंने व्यंग्य - विनोद के भी हल्के छींटे रख दिये हैं। इतिहास को सहज और रसमय बनाने का उनका प्रयत्न बहुत ही अभिनंदनीय है। जो लोग इतिहास को शुष्क और दुरुह बनाते हैं, वे मनुष्य को उसके यथार्थ रूप में समझने देने के सामूहिक प्रयत्न में बाधा ही उत्पन्न करते हैं। मुनि जी ने ऐतिहासिक तथ्यों को बड़े रोचक ढंग से उपस्थित किया है। ' विद्वान् आलोचक व इतिहासकार द्विवेदी जी के इस विवेचन में निबंधकार की भाषा-शैली, विषय-वस्तु एवं व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण तथ्यों का उद्घाटन किया गया है । 'सरस्वती' पत्रिका इस पुस्तक की महत्ता - विशेषता पर प्रकाश डालती है कि- इस पुस्तक में ललित कला, लिपि तथा भौगोलिक और यात्रा शीर्षक तीन भागों में मुनि जी के गंभीर ऐतिहासिक ज्ञान की सर्वत्र छाप है। जैनाश्रित और बौद्ध धर्माश्रित चित्रकला की यात्राएं भी मनोरंजन के साथ-साथ खोज की पगडंडियाँ प्रशस्त कर रही हैं। ऐतिहासिक तथ्यों को रोचक शैली में प्रस्तुत करने में लेखक की सफलता श्लाघ्य है।
लेखक प्राचीन खण्डहरों के प्रति बचपन से ही उत्सुक, जिज्ञासु एवं शोधार्थी बन गये थे। प्राचीन खण्डहर उनके लिए निर्जीव न रहकर सजीवता के प्रतीक समान मित्र, सहोदर, गुरुजन या निकट के आप्तजन बन गये थे। अतः वे कहते हैं, 'ये खंडहर तो मानवता की अखंड ज्योति और राष्ट्रीय पुरुषार्थ और लोक-जीवन के प्रेरणात्मक भव्य प्रतीक हैं। स्वयं जैन न होने पर भी जैन वास्तुकला, चित्रकला का उच्चतम अभ्यास करके प्राप्त ज्ञान को सहज-सरल ढंग से अभिव्यक्त किया है। गुजराती भाषी होने पर भी विशुद्ध व साहित्यिक हिन्दी भाषा में लिखना उनके लिए सहज साध्य बन गया है। इस पर से हिन्दी के प्रति उनकी रुचि एवं अधिकार का अनुमान निकाला जा सकता है। पुस्तक के प्रथम भाग में नालंदा, विन्ध्याचल, पटना की यात्रा का रसिक आचार्य हजारी प्रसाद
1. मुनि कांतिसागर जी कृत- खोज की पगडंडियाँ, प्रस्तावना, द्विवेदी, पृ. 7, 8.
2. मुनि कांतिसागर जी कृत - ' खोज की पगडंडियाँ' प्रस्तावना, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० 11.