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________________ आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य ऐतिहासिक दृष्टि बिंदु प्रतीत होता है। जैन दर्शन एवं साहित्य के मर्मज्ञ होने के साथ हिन्दी साहित्य के भी विशेष ज्ञाता व विवेचक है। भगवान महावीर पर लिखे गये चरित ग्रन्थ में भी आपकी रोमांचक शैली एवं गूढ़ विचारों का प्राधान्य देखा जा सकता है। ऐतिहासिक प्रस्तुतीकरण में नवीनता व सुबोधता के साथ ऐतिहासिक तथ्यों की खोज-बीन का आग्रह अवश्य स्तुत्य कहा जायेगा । 362 मुनि श्री कान्ति सागर जी ने भी गवेषणात्मक निबंध अच्छे लिखे हैं, विशेषकर जैन-चित्रकला एवं वास्तुकला के विषय में गहराई में जाकर उन्होंने जो निबंध प्रदान किये हैं, इससे एक महत्वपूर्ण दिशा में कार्य हुआ है। ऐसे निबंधों में कला के साथ अनेक स्थानों के भौगोलिक परिवेश पर भी संशोधनात्मक प्रकाश डाला है। 'खण्डहरों का वैभव' और 'खोज की पगडंडियों' इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण निबंधों का संकलन है। 1940 के 'विशाल भारत' में भी आपके संग्रहालय व स्थापत्य सम्बंधी लेख प्रकट हो चुके हैं। प्रयाग संग्रहालय में 'जैन पुरातत्व' और 'विन्ध्यभूमि का जैनाश्रित शिल्पविधान' निबंध इस विषय में महत्वपूर्ण खोज कही जायेगी । 'मुनि श्री कान्ति सागर के पुरातत्वान्वेषणात्मक निबंधों का विशिष्ट स्थान है। अब तक आपने अनेक स्थानों के पुरातत्व पर प्रकाश डाला है। प्राचीन मूर्तिकला और वास्तुकला का मार्मिक विश्लेषण आपके निबंधों में विद्यमान है। + + + + शैली विशुद्ध साहित्यिक है। भाषा प्रौढ़ और परिमार्जित है।' 'खोज की पगडंडियां' निबंध संग्रह इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने मुनि श्री की इस कृति के सम्बंध में लिखा है- ' श्री मुनि कान्ति सागर जी प्राचीन विधाओं के मर्मज्ञ अनुसन्धाता हैं। जैन मुनि लोग पैदल यात्रा करते हैं। इस पैदल यात्रा के समय मुनि जी ने पुरातत्व सम्बंधी अनेक ऐसे स्थलों को देखा है, जहाँ साधारणतः आजकल के आधुनिक दृष्टि - संपन्न अनुसंधाता नहीं पहुँच पाते। इन ऐतिहासिक स्थानों, मंदिरों, देव - मूर्तियों, कला-शिल्पों का बड़ा ही रोचक वर्णन उन्होंने 'खोज की पगडंडियाँ' नामक पुस्तक में दिया है। यह पुस्तक न तो मौजी घुमक्कड़ का यात्रा विवरण है और न पुरातत्व के ऐकान्तिक आराधक की नीरस माप खोज । फिर भी इसमें दोनों के गुण मौजूद हैं। मुनि जी प्राचीन स्थानों को देखकर स्वयं आनंद विह्वल होते हैं और अपने पाठकों को भी उस आनंद का उपभोक्ता बना देते हैं। पुस्तक में किसी प्रकार की 'हाय हाय' या उच्छवास भरी भाषा बिल्कुल नहीं है। सहज भाव से द्रष्टव्य का वर्तमान रूप और अतीत इतिहास डा० नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 127. 1.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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