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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
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बल्कि हिन्दी साहित्य पर भी उपकार किया है कि इतने विशाल परिमाण में विद्वता युक्त, विचारशील निबंधों की सृष्टि का सृजन किया है। उनकी कलम निरंतर लेखन कार्य करती रहती है। निबंधों के साथ-साथ यदि उन्होंने उपन्यास नाटक, कहानी साहित्य पर भी अपनी कलम चलाई होती तो अवश्य सफल रहते और जैन साहित्य को ललित वाङ्मय प्राप्त होता। हिन्दी गद्य के विकास में आपका प्रेक्ष्य उल्लेखनीय कहा जायेगा। इस संग्रह में जैन इतिहास धर्म और समाज विषयक लेखों में कुशल अनुभवी विद्वान् एवं निष्पक्ष समालोचक के विचार निहित हैं। महावीर का सर्वोदय तीर्थ लिखकर उन्होंने जैन धर्म के अनेकान्त सिद्धांत की एक प्रशस्त भूमिका निर्माण की। 'सर्वोदय के मूलमंत्र' में उन्होंने अनेकान्त सिद्धान्त का सारतत्व रख दिया है। 'जैन नीति में अमृतचन्द्राचार्य की ग्वालिन की उपमा द्वारा अनेकान्त की सार ग्राहिणी शक्ति का उन्होंने अच्छा परिचय करवाया है और वर्षों तक 'अनेकांत' पत्र में लेखों द्वारा प्रकट करते रहे। जिन पूजाधिकार 'मीमांसा', उपासना तत्त्व, उपासना का ढंग, वीतराग की पूजा क्यों ? व वीतराग से प्रार्थना क्यों ? जैसे लेखों द्वारा तत्सम्बंधी जैन दृष्टिकोण का शास्त्रीय, निर्विकार व निर्मल प्रतिपादन करते हुए प्रचलित धारणाओं और विधियों में परिष्कार करने का प्रयत्न किया। जैनियों में दया का अभाव, जैनी कौन हो सकता है? जाति भेद पर अमित गति आदि निबंधों में शास्त्रीय प्रमाणों से सिद्ध कर दिखाया है कि वर्ण व जाति जैसे अर्थहीन भेदभावों के आधार से किसी को जैन धर्म का पालन व दर्शन-पूजन के अधिकारों से वंचित रखना सर्वथा अनुचित एवं अमानवीय है। 'चारुदत्त सेठ का शिक्षाप्रद उदाहरण, वसुदेव का शिक्षाप्रद उदाहरण, गोत्र स्थिति व सगोत्र विवाह, असवर्ण व अन्तर्जातीय विवाह आदि लेखों में उन्होंने पौराणिक उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि ऊँच-नीच व गोत्र आदि भेदभाव सारहीन, निरर्थक है, वह धर्म प्रेरित न होकर समाज प्रेरित है। उनके उग्र समाज सुधारक विचारों से समाज के रूढ़ि चुस्तों को धक्का अवश्य पहुँचा था, लेकिन उनके अकाट्य शास्त्रीय प्रमाणों से युक्त तर्कों को कोई काट नहीं सका। हम पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार को जैन समाज में नये युग निर्माण में एक महान अग्रणी कह सकते हैं, जिसके प्रचुर प्रमाण उनके प्रस्तुत लेखों में विद्यमान हैं। + + + + अन्य विश्वासों व अज्ञानपूर्ण मान्यताओं की कठोर आलोचना के साथ-साथ शास्त्रीय आधार और स्थिर आदर्शों का पक्षपात तथा नव-निर्माण का सावधानीपूर्ण प्रयत्न पंडित जी की अपनी विशेषता है। अपनी कही हुई बातों की पुष्टि के लिए प्रमाणों, तर्कों व दृष्टान्तों की उनके पास कोई कमी नहीं है। उनकी भाषा सरल और धारावाहिनी तथा शैली तर्कपूर्ण और ओजस्विनी है।