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________________ 358 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य के समान किया है। अनेक जैन पत्र-पत्रिकाओं में प्रेमी जी के ऐतिहासिक शोधात्मक निबंध प्रकाशित हो चुके हैं। उनके प्रत्येक निबंध में शैली की गंभीरता, विचार निष्ठा, सुगमता एवं प्रवाह का प्रशंसनीय रूप देखने को अवश्य मिलेगा। दुरुह से दुरुह विषयों को बड़े रोचक और स्पष्ट रूप से छोटे-छोटे शब्दों में व्यक्त करने की अद्वितीय समर्थता उनमें विद्यमान है। "प्रेमी जी ने स्वामी सामंतभद्र, आचार्य प्रभाचन्द्र, देवसेन सूरि, अनन्तकीर्ति आदि नैयायिकों का, आचार्य जिनसेन और गुणभद्र प्रभृति संस्कृत भाषा के आदर्श पुराण निर्माताओं का, आचार्य पुष्पदत्त और विमलसूरि आदि प्राकृत भाषा के पुराण निर्माताओं का, स्वयंभू, त्रिभुवन स्वयंभू प्रभृति प्राकृत भाषा के कवियों का, कविराज हरिचन्द, वादिम सिंह, धनंजय महासेन, जयकीर्ति, वाग्भट, आदि संस्कृत कवियों का, आचार्य पूज्यपाद देवनंदी और शकटावन प्रभृति वैयाकरणों का एवं बनारसीदास, भगवतीदास आदि हिन्दी भाषा के कवियों का अन्वेषणात्मक परिचय लिखा है।' प्रेमी जी न केवल हिन्दी जैन साहित्य के अपितु हिन्दी साहित्य के भी सम्मानीय लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' का नाम भी ऐतिहासिक निबंध लिखनेवालों में आदर से लिया जाता है। जैन साहित्य के अन्वेषणकर्ताओं में आपका नाम मूर्धन्य है। उनके ऐतिहासिक, दार्शनिक, वैचारिक निबंधों का संग्रह, 'युगवीर निबंधावली भाग 1-2' में किया गया है, जिनमें उनकी गंभीर विद्वत् शैली स्पष्ट प्रतीत होती है। आपने करीब 15 ऐतिहासिक निबंध लिखे हैं। कवि और आचार्य की परंपरा, निवास स्थान, समय निर्णय, आदि के विषय में खोज करने का श्रेय आपके निबंधों को भी दिया जाता है। इनकी लेखन शैली की यह विशेषता है कि एक ही विषय को समझाने के लिए वे बार-बार बताते चलते हैं, ताकि सामान्य से सामान्य पाठक भी समझ सके। इसमें कहीं पुनरावृत्ति का आभास लगे लेकिन सजगता के साथ ही एक बात को बार-बार दोहराते हैं। 'युगवीर निबंधावली' मुख्तार जी के इन 41 लेखों का संग्रह है, जो सन् 1907 से 1945 के बीच के 45 वर्षों में भिन्न-भिन्न समय पर लिखे गये थे और 'जैन संग्रह' 'जैन हितैषी', 'सत्यादेय', 'अनेकान्त' आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। इतनी लंबी अवधि को देखकर यह सहज स्वाभाविक है कि प्रत्युत् लेखों की अनेक बार अब कालातीत हो गई हो, लेकिन आश्चर्य है कि बहुत-सी बात तो मानो वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखकर उस समय लिखी हो। बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी युगवीर जी ने न केवल जैन साहित्य 1. डा० नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ॰ 181, 122.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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