SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 354 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य में विधवा कान्ता की रक्षा कर उसके छोटे बच्चे कन्हैया के साथ मनोहर आश्रम में ले आता है। बीच-बीच में रमाकान्त एवं मनोहर के गीतों में प्रेम व अहिंसा, दया, ममता व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार का संदेश दिया जाता है। अंत में जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण विचारधारा अहिंसा की उपादेयता प्रतिपादित करते हुए लिखा गया है कि-संसार में अहिंसा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। कोई देवी या माता संसार में किसी की बलि नहीं चाहती। और न वह मांस-भक्षण करती है। वह तो केवल इन धूर्तों ने अपने पापी पेट के लिए ढोंग रचा रखा है। मैं संसार को उपदेश करती हूँ कि संसार में सभी जीवों पर दया करो, कभी किसी को मत सताओ। जाओ बेटा। तुमने संसार की आँखें खोल दी हैं। तुम्हारा यश संसार में अक्षय हो। इसके आगे जब मनोहर देवी के मंदिर में निर्दोष पशु की जगह स्वयं बलि के लिए तैयार हो जाता है, तब उसका मित्र उसकी अहिंसा, हिम्मत एवं साहस की प्रशंसा करता हुआ कहता है धर्म अहिंसा में बसे-हिंसामांहि अधर्म जो हिंसा करते अधम, पावें नरक अधर्म।' इस प्रकार एक ओर समाज में दलितों, पीड़ितों, असहायों की दशा का नाटकीय ढंग से निरूपण है, तो दूसरी ओर निर्दोष पशुओं की बलि का जघन्य कार्य रोक कर अहिंसा प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। नाटक रंगमंचीय है एवं भाषा भी सरल है, वातावरण का चित्रण विशेष नहीं हो पाया है। पात्रों में भी रमाकान्त तथा मनोहर का अच्छा चरित्र-चित्रण हो सका है, जबकि अन्य गौण पात्रों में सेठ धनपाल जी, विधवा कान्ता, गरीब दीनानाथ, पंडित जी आदि के लिए अवकाश नहीं रहता है। दीवान अमरचंद : ... स्व. रतनलाल गंगवाल ने जयपुर के राष्ट्रप्रेमी अहिंसक, न्यायी तथा करुणाशील दीवान अमरचंद जी की जीवनी पर से यह नाटक लिखा है। जयपुर नगर के छोटे दीवान होने पर भी वे सादगी और सरलता से रहते थे। जैन धर्म के तत्वों के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। उनकी अटूट श्रद्धा से प्रभावित होकर जयपुर के महाराज ने निर्दोष प्राणी की हत्या पर प्रतिबंध लगवाया था। दीवान गरीबों की नि:स्वार्थ सेवा-सहायता करते रहते थे। जयपुर के उत्कर्ष के लिए समाज में प्रवर्तित प्राचीन सड़ी-गली रूढ़ियों को तोड़ने के लिए वे निरंतर सतर्क रहते थे। इतने बड़े पद पर अधीनस्थ होने पर भी वे अत्यन्त दयालु एवं नम्र थे। अपने राज्य में कहीं भी असंतोष या अव्यवस्था न बनी रहे, इसके लिए वे 1. नंदलाल जैन-'भारत के सपूत', पृ० 38.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy