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________________ विषय-प्रवेश करने का हेतु भी दृष्टिगत होता है। आधुनिक हिन्दी जैन-साहित्य में इन प्रमुख तत्वों का विनियोजन कहां तक हो पाया है, इसका निरीक्षण करना-युक्ति युक्त प्रतीत होता है। अतः इन तत्वों पर संक्षेप में विचार करना अनुपयुक्त नहीं होगा। जैन धर्म के प्रमुख तत्वों की विवेचना करने से पूर्व जैन शब्द की उत्पत्ति पर थोड़ा विचार कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा। 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति : 'जैन' शब्द मूलतः 'जिन' पर से आया है, अर्थात् जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया है, वह 'जिन' और उनके अनुयायी 'जैन' या 'जैनी' कहलाते हैं। संस्कृत ग्रंथ 'शब्दकल्पदुम' में 'जिन' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गई है-'जिनः (पु) (जयतीति, जि+हेण विण जोतिउणाम्।3/2 इति नल) अहेत्। बृद्धः विष्णुः। इति हेमचन्द्र 2/30।' इस प्राचीन बृहद् संस्कृत ग्रंथ में 'जैन' शब्द के विषय में विविध परिभाषाएं दी गई है। 'जैन', 'जिन' और 'जितेन्द्रिय' शब्द के विषय में लिखा हुआ मिलता है कि 'जैनः (पु) जिन एव यद्धा जिन उपास्य देवतास्येति। जिन+अण। जिनोपासक:। बौद्ध (इति इलगयुघः)' 'जिन' के लिए 'त्रि' (जनानी वशीकृतानी इन्द्रियाणी श्रोता विनियोना) वशीकृते इन्द्रिया तत् पर्यायः शान्तः शान्तः 3, इति हेम-चन्द्रः।। यथा शब्द चिन्तामणी घृतवचनम्। न हृष्यत्वि ग्लायति वा स विज्ञैयो जितेन्द्रियः। 'जिनः धर्मक्षेत्र अस्मिन् भारत वर्षे प्रचलितेषु विविघेषु धर्मेषु जिन धर्म एव श्रेष्ठतम इति जैनः प्रवदन्ति। एक एषामुपास्य देवता जिनः। तेनु श्वेताम्बर दिगम्बर भेदेन द्विविधाः। श्वेताम्बरास्तु प्रायशः आश्रमिणः अधुना नाना शाखासु विभक्ताः संभवत्। दिगम्बरास्तु प्रायशो: निर्ग्रन्थाः । एतेषा' यन्मत् तत् सर्वदर्शन संग्रहात् प्रदर्श्यत।।" __डा. चतुर्धर शर्मा 'जिन' और 'जैन' शब्द को परिभाषित करते हुए लिखते हैं-The word Jainism' is derived from Jaina' which means 'Conquerer' one who has conquered his passions and desires. It is applied to the libereted souls who have conquered passions and desires and 'karams' and obtained emencipation'. ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र्य के त्रि-रत्न द्वारा अपने मन व इंद्रियों को जिसने जीत लिया हो, ऐसे जितेन्द्रिय तीर्थंकर के उपदेशों का श्रद्धापूर्वक अनुसरण करनेवाले अनुयायियों को 'जैन' कहा जाता है। इन्हीं अनुयायियों द्वारा अपनाये गये धर्म को 'जैन' धर्म कहा जाता है। 1. द्रष्टव्य-शब्दकल्पद्रुम-पृ. 535. 2. द्रष्टव्य-शब्दकल्पद्रुम-पृ. 543. 3. Dr. C.D. Sharma, 'A Critical Survey of Indian Philosophy', Page-48.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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