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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
संक्षेप में जिक्र करेंगे। 'प्रेमी' जी ने मूल नाटकों के भावों की पूर्ण रक्षा कर सुन्दर और सुबोध - शैली में संस्कृत नाटकों का अनुवाद किया है। 'ज्ञान सूर्योदय' एवं 'अकलंक देव' दो नाटकों में प्रथम नाटक रूपकात्मक है। रूपकात्मक नाटकों का प्रचलन संस्कृत साहित्य में सविशेष देखा जाता है। इसमें काम, क्रोध, मोह, माया, के कारण अशान्त मानव के जीवन - विकास के लिए दया, प्रेम, अहिंसा, मानवता आदि गुणों की आवश्यकता होती है । इसलिए ऐसे गुणों, अवगुणों को रूपक के द्वारा पात्रों का स्वरूप देकर नाटक रचे जाते हैं। हिन्दी जैन साहित्य में इस प्रवृत्ति का अनुकरण मध्यकाल से ही देखा जाता है।
ज्ञान- सूर्योदय :
'प्रेमी' जी ने इस संस्कृत रूपक - नाटक का सुंदर ब्रज खड़ी बोली में अनुवाद किया है, जिसमें पद्य ब्रज व खड़ी बोली दोनों में है और गद्य खड़ी बोली में लिखा गया है। मूल भावों की अक्षुण्णता के साथ प्रवाह का भी ध्यान रखा गया है, जिससे मूल कृति-सा ही आनंद प्राप्त होता है। अनूदित कृति का लेशमात्र ख्याल नहीं आता। इस नाटक की कथा वस्तु आध्यात्मिक है। ज्ञान की महत्ता निर्विवाद है। इससे अज्ञान के आवरण को हटाकर सम्यकता के प्रकाश की आवश्यकता नाटकीय ढंग से व्यक्त की गई है। ' इस नाटक में पात्रों का चरित्र-चित्रण और कथोपकथन दोनों बहुत सुंदर हैं। शास्त्रीय नाटक होने से नांदीपाठ, सूत्रधार आदि है । मति और विवेक का वार्तालाप कितना प्रभावोत्पादक है, यह निम्न उद्धरणों से स्पष्ट है :
मति - आर्यपुत्र! आपका कथन सत्य है, तथापि जिसके बहुत-से सहायक हों, उस शत्रु से हमेशा शंकित रहना चाहिए।
विवेक - अच्छा कहो, उसके कितने सहायक हैं ? काम को शील मार गिरायेगा । क्रोध के लिए क्षमा बहुत है। संतोष के सन्मुख लोभ की दुर्गति होगी ही और बेचारा दम्भ-कपट तो संतोष का नाम सुनकर छू-मन्तर हो जायेगा।
मति - परन्तु मुझे यह एक बड़ा भारी अचरज लगता है कि जब आप और मोहादिक एक ही पिता के पुत्र हैं, तब इस प्रकार शत्रुता क्यों ? आत्मा कुमति में इतना आसक्त और रत हो रहा है कि अपने हित को भूलकर वह मोहादिक पुत्रो को इष्ट समझ रहा है, जो कि पुत्राभास है और नरक गति में ले जाने वाला है।'
विवेक
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डा० नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, भाग 2, पृ० 109.