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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
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रंगमंचीय, उतना ही अधिक वह सफल एवं लोक भोग्य हो सकता है। रंग मंच युग विशेष की जन रुचि व आर्थिक स्थिरता पर निर्भर होता है। आधुनिक काल में नाटक में लक्षण जन रुचि के कारण बदलने पड़ते हैं। बाबू गुलाब राय लिखते हैं-नाटक के जीवन की अनुकृति को शब्दगत संकेतों में संकुचित करके, उसको सजीव पात्रों द्वारा एक चलते-फिरते सप्राण रूप में अंकित किया जाता है। नाटक जीवन की सांकेतिक अनुकृति नहीं है, वरन् सजीव प्रतिलिपि है। नाटक में फैले हुए जीवन व्यापार को ऐसी अवस्था के साथ रखते हैं कि अधिक से अधिक प्रभाव उत्पन्न हो सके। जीवन के आदर्शों की व्याख्या के साथ सामाजिकों को आनंदोपलब्धि कराना नाटक का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। आधुनिक धारणा के अनुसार नाटक जीवन की व्याख्या है, जो हमारी समस्याओं एवं हलों को हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है। नाटक नैतिक मूल्यों की दृष्टि से मानवीय अभिव्यक्ति का एक श्रेष्ठ साधन है। सैद्धांतिक रूप से यह साहित्य का आत्म निरपेक्ष रूप है, इनमें लेखक के व्यक्तित्व का प्रवेश नहीं होता। लेखक इसमें जो कुछ भी कहना चाहता है, केवल संवादों के माध्यम से कहता है, अन्यथा सब कुछ घटनाओं से स्वत: व्यंजित होता है। आज नाटक आकार में लघुता, उद्देश्य में सूक्ष्म मनोविश्लेषण तथा माध्यम में पाठ्य और कलात्मक अभिनय की ओर जा रहा है।
___ आधुनिक हिन्दी नाट्य साहित्य में इसके अनेक प्रकार पाये जाते हैं। भारतेन्दु काल से ही इसका प्रारंभ व विकास हो चुका था, जो अद्यावधि आगे अनेक रूपों में बढ़ता जा रहा है। हिन्दी जैन साहित्य में नाटक की रचनाएँ प्राप्त होती हैं, लेकिन इसका प्रमाण विपुल नहीं कहा जा सकता। बहुत-सी रचनाओं में पद्यमय संवाद का रूप पाया जाता है, जिस पर भारतेन्दु कालीन पारसी थियेट्रीकल कम्पनी के नाटकों की शेरो-शायरी का प्रभाव लक्षित होता है। इनमें पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, संघर्ष की स्थिति एवं चरम परिणति का मार्मिक अंकन कम रहता है। इसका कारण यह भी संभव हो सकता है कि ये नाटक सामाजिक मनोवैज्ञानिक न होकर धार्मिक घटना-प्रवाह से युक्त होने से इनमें संवाद की उपादेयता, स्वाभाविकता एवं रंगमंचीयता पर विशेष ध्यान दिया गया है। प्रहसनों की संख्या नहीं के बाराबर है। जैन साहित्यकार प्राचीन नाटकों का अनुवाद भी करते रहे हैं। यहाँ अनूदित साहित्य के विषय में विशेष न लिखते हुए केवल पं. नाथूराम 'प्रेमी' जी की दो अनूदित नाट्य रचनाओं का
1. द्रष्टव्य-हिन्दी साहित्य कोश, पृ॰ 373. 2. वही-पृ. 381.