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________________ 334 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य पाई जाने लगी, तभी से अभिनेयता के रूप में नाटक मनुष्य का चिर सहचर बना है। वेदों में संवाद, गीत, अभिनय एवं रस की प्राप्ति होती थी। इसीलिए तो कहा जाता है कि ब्रह्मा ने ऋग्वेद से संवाद, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रस को लेकर पांचवें वेद-नाट्य-वेद-की रचना देवों की विनंती से की, जिसमें मनोरंजनात्मक रचना या क्रिया देखी-सुनी जा सके। भरत मुनि ने 'नाट्य शास्त्र' ग्रन्थ में नाटक के विभिन्न अंगों पर विस्तार से विवेचन किया है। संस्कृत साहित्य में कालिदास, राजशेखर, भास, अश्वघोष, भवभूति, पिशाखदत्त, हर्षदेव, क्षेमेन्द्र, विद्यामाधव प्रभृति प्रसिद्ध व समर्थ नाटककारों की उत्तमोत्तम कृतियाँ पाई जाती हैं। जब संस्कृत की धारा क्षीण होती गई और राज्याश्रय बन्द-सा हो गया तो प्राकृत और अपभ्रंश में नाटक की अपेक्षा चरितकाव्यों की रचना सविशेष होने लगी। नाटक का मूलभूत सिद्धान्त 'अनुकरण' एवं दूसरा तत्व समाज या प्रेक्षक होता है। 'नाटक' शब्द से ही संवाद का बोध होता है, जिसका अभिनेता के द्वारा प्रेक्षकों के सामने प्रस्तुतीकरण होता है। हमारे भारत में दोनों प्रकार के नाटक पाए जाते हैं, यथार्थोन्मुख एवं आदर्शोन्मुख। संस्कृत में नाटक को रूपक और दशरूपके अन्तर्गत गिना जाता है, जिसका प्रमुख उद्देश्य लोकरंजन होता है। 'नाट्यदर्पण' कार रामचन्द्र गुणचन्द्र ने नाटक का लक्षण बताते हुए लिखा है कि-जो प्रसिद्ध आद्य (पौराणिक एवं ऐतिहासिक) राज-चरित का ऐसा वर्णन हो और जो अंक, आय, दशा से सम्बंधित हो वह नाटक कहलाता है। 'साहित्य दर्पण'कार विश्वनाथ ने नाटक का लक्षण बताते हुए लिखा है-नाटक वह रचना है, जिसकी कथावस्तु रामायणादि एवं इतिहास में प्रसिद्ध हो, जिसमें विलास, समृद्धि आदि गुण तथा अनेक प्रकार के ऐश्वर्यों का वर्णन हो, जहाँ सुख-दु:ख की उत्पत्ति दिखाई जा सके और अनेक रसों का समावेश हो सके, जिसमें 5 से 10 तक अंक हो, जिसका नायक पुराणादि में प्रसिद्ध वंश में उत्पन्न धीरोदात्त, प्रतापी, गुणवान, कोई राजर्षि अथवा दिव्य या दिव्यादिव्य पुरुष हो, जहाँ शृंगार अथवा वीर रस प्रधान हो तथा अन्य रस अंगीभूत हो, जिसकी निर्वहण संधि अत्यन्त अद्भुत हो, जिसमें चार या पाँच पुरुष प्रधान कार्य के साधन में व्याप्त हों, गो की पूछ के अग्रभाग के समान जिसकी रचना हो। नाटक की सफलता का परीक्षण रंग मंच से होता है। जो नाटक जितना 1. रामचन्द्र गुणचन्द्र : नाट्यदर्पण, पृ० 3 श्लोक, 5. 2. आ. विश्वनाथ, 'साहित्य दर्पण', षष्ठ परिच्छेद, पृ. 7, 12.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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