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विषय-प्रवेश
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इस प्रकार ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर मानव की पूर्ण स्वतंत्रता को स्वीकार करने के साथ ही मनुष्य की व्यक्तिगत चेतना को जागृत करने के लिए महावीर ने कर्मवाद का सिद्धान्त दिया, ताकि मनुष्य के भीतर आलसवृत्ति या प्रमाद पैदा न हो और सत्कर्मों के प्रति निरन्तर ध्यान बना रहे। निरन्तर सद् प्रयासों से ही सुख प्राप्त हो सकता है, अकर्मण्य बनकर मनुष्य आत्मा के प्रकाश को प्राप्त नहीं कर पाता। व्यक्तिगत साधना के साथ सामाजिक उत्तरदायित्व को निभाते हुए प्राणीमात्र के कल्याण के लिए निरन्तर गतिशील रहना ही प्रत्येक मनुष्य का पवित्र कर्तव्य होने पर महावीर ने जोर दिया। इस प्रकार भगवान महावीर ने ईश्वर की कल्पना के स्थान पर मानव-महत्ता स्थापित करते हुए कर्मवाद की आवश्यकता को प्रतिपादित किया था। नारी को समानाधिकार देने वाले युगदृष्टा महावीर :
महावीर के समय में जैसे ऊपर चर्चा की जा चुकी है कि नारी और शूद्रों को कोई अधिकार ही प्राप्त नहीं थे। नारी का प्राचीन वैदिक कालीन गौरवपूर्ण स्थान समाप्त हो चुका था और वह चारदीवारी में बंधकर रह गई थी। उसे सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक क्षेत्र में किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। महावीर ने नारी को पुरुष के समकक्ष महत्व प्रदान किया और उसे सामाजिक तथा धार्मिक कार्यों में समानता का अधिकार देकर उनका उद्धार किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम नारी को प्रवज्या देने का श्लाघनीय कार्य किया। इसका प्रभाव अन्य धर्मों पर भी पड़ना स्वाभाविक है। समाज की महत्वपूर्ण ईकाई होने के नाते नारी को भी पुरुष की तरह आत्मविकास की संपूर्ण सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए। महावीर के युग में नारी को दीक्षित होने की महत्ता तो दूर की बात, उसे धार्मिक आचार-विचार-व्यवहार की स्वतंत्रता भी प्राप्त नहीं थी। महावीर ने सर्वप्रथम उन्हें सभी अधिकारों से संपन्न कर दिया। भगवान बुद्ध तक नारी को दीक्षा देने के लिए प्रारंभ में झिझकते थे, लेकिन महावीर ने साध्वियों को अपने चतुर्विध संघ का एक महत्वपूर्ण अंग माना और उसे मुक्ति की अधिकारिणी समझा। लोकभाषा के अध्येता महावीर :
प्राचीन भारत में जब ब्राह्मण धर्म वर्चस्व में था, तब साहित्यिक भाषा के रूप में संस्कृत को भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था। उसी संस्कृत भाषा में धार्मिक एवं ललित साहित्य का निर्माण होता था। वह सामान्य जनता से हटकर विद्वानों एवं शिक्षित जनता तक सीमित रह गई थी और सामान्य जनता में पाली व प्राकृत भाषा का ही प्रचलन था। लोक बोली के रूप में पाली विकसित हो