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________________ 10 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य की सबसे बड़ी सिद्धि-उपलब्धि कही जाएगी तथा प्रजातंत्रात्मकता का बीज भी इसी में देखा जा सकता है। मानव की समानता व स्वतंत्रता को स्वीकार कर उसे 'मोक्षपद' का अधिकारी घोषित किया। ___मानव-स्वतंत्रता के संदर्भ में ही उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को नहीं स्वीकारा है। वेदान्त, सांख्य और अन्य हिंदू दर्शन प्रणाली में ईश्वर के अस्तित्व और उसकी संपूर्ण सत्ता को स्वीकार कर विश्व-संचालक के रूप में उसकी परिकल्पना की गई है। जैसे कोई राजा अपनी प्रजा का पालन-पोषण, रक्षा एवं न्याय-दण्ड देता है, उसी प्रकार ईश्वर भी इस सृष्टि की संरचना कर पालन करता है। जबकि जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म ईश्वर नामक तत्व या सत्ता को स्वीकारते ही नहीं, उसके अनुसार 'विश्व आदि और अनन्त है। लोक वह स्थान है, जहां अच्छे और बुरे कार्यो के परिणाम स्वरूप सुख और दुःख का भोग या अनुभव होता है। ईश्वर की सत्ता स्वीकार्य ही नहीं होती।' यह भिन्नः बात है कि उनके अनुयायी महावीर-बुद्ध को ईश्वर समकक्ष मान कर उनकी पूजा-भक्ति करते हैं। लेकिन मेरे विचार से जैन दर्शन में एक विशिष्टता दृष्टिगत होती है कि महावीर को अलौकिक शक्तिशाली ईश्वर के रूप में नहीं, लेकिन धर्म रूपी तीथं को बांधने वाले तीर्थंकर स्वीकार कर श्रद्धापूर्वक भक्ति करते हैं और उनकी तरह हर मनुष्य स्वयं अपना भाग्य निर्माता बनकर मोक्ष का अधिकारी होने की अभिलाषा से उनके प्रति श्रद्धा व विश्वास व्यक्त करते हैं। महावीर ने विश्व की प्रकृति स्वधर्म अनुप्राणित एवं स्व-निर्मित मानी है। आज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण (विकास) भी यही सिद्ध करता है। जगत का यह चक्र-काल, स्वभाव, नियति, कर्म एवं पुरुषार्थ के पांच तत्वों से ही चलता है। अनादिकाल से यह चक्र स्वतः ही चलता आया है। इसकी उत्पत्ति के आदि कारण के लिए कोई ईश्वरत्व की महत्ता नहीं स्वीकारते। इसी तरह जगत के स्व-निर्माण की भांति 'मनुष्य ईश्वर का बनाया हुआ न होकर तत्वों से निर्मित स्वतंत्र अस्तित्व है।' 'मनुष्य के विकास की उच्चतम कल्पना का नाम ही ईश्वरत्व है। 1. देखें-डा. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता-भारतीय दर्शन का इतिहास, पृ. 207, अध्याय-1, जैन दर्शन, अनु. कलाधर शास्त्री पं० दलसुख मालवणिया कृत-जैनधर्म चिन्तन-पृ. 132-234 2. द्रष्टव्य : (1) Dr. C.R. Jain 'what is Jainism?' Page 5. (2) The fundamental principal of Jainism is that 'Man is a spiritual beings'. H.L. Zeveri' The first principals of Jain Philosophy', London, 1970. 3. दिनकर जी-साहित्यमुखी-पृ. 6.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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