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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
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सुरसुन्दरी जब जगी तो अपने आंचल में सात कोड़ियों के साथ चिट्ठी पाई। जिसमें लिखा गया था-'इसी सात कौड़ियों में राज लेकर रानी बनो।' सुन्दरी का क्षोभ व वेदना दूर होने पर क्षत्रियत्व जाग उठा। पहले उसे अमर कुमार के इस कठोर व्यवहार पर गुस्सा, नफरत व अपमान का भाव जाग उठता है, लेकिन तुरन्त उसकी आत्मा बोल उठी,-'छिः सुरसुन्दरी। नारी होकर तेरे यह भाव। पुरुष का धर्म कठोरता है, नारी का धर्म कमनीयता और कोमलता। पुरुष का कार्य निर्दयता है, तो स्त्री का कार्य धर्म-दया।"' इसके बाद वह निश्चय करती है कि आखिर मैं क्षत्रियाणी हूँ। इस प्रताड़णा का बदला अवश्य लूँगी व करके ही दिखाऊँगी।
रात्रि के समय इस जंगल की गुफा से कठोर ध्वनि करता हुआ एक राक्षस निकला लेकिन उसकी करुण दशा व दिव्य ज्योति को देखकर पुत्रीवत् मानने लगा। थोड़े दिन के बाद एक सेठ वहाँ आता है और उसे ले जाता है। उसकी दृष्टि में पाप समाता है और उसे एक वेश्या के यहाँ बेच देता है। यहाँ अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए किसी प्रकार छुटकारा पा समुद्र की उत्ताल तंरंगों में कूद पड़ती है। लेकिन किसी सेठ के नौकरों द्वारा त्राण पाकर फिर आपत्ति में फंस जाती है। जैसे-तैसे सुरसुन्दरी समय काटती है। इसी बीच एक मुनिराज से अपने पति से मिलन का समय पूछती है तो उत्तर पाती है कि निकट के भविष्य में पति-मिलन होने वाला है। अन्त में अपना नाम विमलवाहन रखकर उन्हीं सात कौड़ियों द्वारा व्यापार करती है। एक बार नगर में बहुत बड़े चोर का पता लगाने पर राजकुमारी से ब्याह और आधा राज्य प्राप्त करती है। अमरकुमार भी व्यापार के लिए उसी नगरी में आता है, निर्धन और दीन-हीन दशा में। राज्य के अनुचर उसे चोर समझकर न्याय के लिए दरबार में ले जाते हैं, वहाँ विमलवाहन के रूप में सुरसुन्दरी बैठी है। दोनों का मिलन होता है। अमरकुमार के पश्चाताप करने पर सुरसुन्दरी उसे क्षमा देती है और पति को सब कुछ अर्पण करती हुई राते-रोते कहती है-नाथ! फिर कभी ऐसी परीक्षा में मत डालना। आपकी आज्ञानुसार सात कौड़ियों द्वारा प्राप्त किया हुआ राज्य आपको अर्पण हैं।' मानिनी नारी की प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाती है और पुरुष का अहंभाव नत होता है।
इस कृति में लेखक ने नारी-तेज, उसकी महत्ता, धैर्य साहस और क्षमता का पूर्ण परिचय देते हुए अत्याचारियों के अत्याचार शांत एवं शीलवती, दृढ़
1. कृष्णलाल वर्मा : सती सुरसुंदरी, पृ० 25. 2. कृष्णलाल वर्मा : सती सुरसुंदरी, पृ० 52.