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________________ 284 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य से वशीभूत होकर उससे उत्कट प्रेम करने लगता है, लेकिन वह विद्युतप्रभ को प्रेम करती है, ऐसी भ्रमात्मक मान्यता के कारण उसके अहं को ठेस पहुँचती है। अतएव, वह तब तक घुलता रहता है, जब तक मानवीय भावों ने उसका अहम न तोड़ दिया। अहम के बंधन टूटते ही मानवता, प्यार, करुणा व सहानुभूति के गुणों से उसका व्यक्तित्त्व चमक उठा। जब तक दिप्तका रूप धारण करता रहा, पद-पद पर व्यथा का अनुभव करता रहा। अपने अहंभाव को आच्छादित करने के लिए दर्शन की व्याख्या, विश्वविजय की इच्छा तथा मुक्ति की कामना स्व-भावों की अनुकूलता के मुताबिक करता है। जब वह नारी की महत्ता, त्याग, सहिष्णुता समझने में असमर्थ रहता है; तब तक वह अपूर्ण रहता है, लेकिन जब उसके चरित्र में अहं का विनाश और मानवता के विकास का प्रारंभ होता है, वह नारी के वास्तविक रूप से परिचित हो जाता है। साथ ही साथ वह पूर्ण वीर भी है। रावण-वरुण के युद्ध प्रसंग में उसकी वीरता साकार हो जाती है। अंजना का पारस-स्पर्श होते ही वह आदर्श पति, आदर्श पुत्र व मित्र बन जाता है। "पवनंजय को लेखक ने हृदय से भावुक, मस्तिष्क से विचारक, स्वभाव से हठ और शरीर से योद्धा चित्रित किया है।" अंजना इस उपन्यास का प्रधान केन्द्र बिन्दु है। इसका चित्रण लेखक ने अत्यन्त मनोवैज्ञानिक ढंग से किया है। यह पातिव्रत का सहज सरल आदर्शअस्त्र लेकर गौरव से हमारे सामने उपस्थित होती है। वह मूक त्याग की प्रतिभा-सी अचल है। अपने आप में गड़ी रहती है या अपनी ही लघुता देखती हुई पवनंजय को दोषी नहीं ठहराती। अपने भाग्य एवं कर्मों को ही दुःख का कारण समझकर पुनः मिलन की अडिग आस्था उसके भीतर छिपी हुई है। इसी श्रद्धा-आशा के बल पर ही वह दुःखों को शान्ति से झेल रही है। परित्यक्ता होने का शोक अवश्य है लेकिन धैर्य की अजम्र धारा अनवरत रूप से प्रवाहित होती रहती है। बाईस वर्षों तक अपने नियमों को दृढ़ता से पालती हुई, तिलतिल जलती हुई अंजना जब पवनंजय उसके महल में पधारता है, तब शिकायत किए बिना पूर्ण क्षमादान देती हुई हार्दिक अभिवादन करती है और अपना संपूर्ण अर्पण कर देती है जब पवनंजय कहता है-रानी! मेरे निर्वाण का पथ प्रकाशित करो। तब वह प्रत्युत्तर में कहती है-मुक्ति की राह मैं क्या जानूँ, मैं तो नारी हूँ और सदा बंधन देती आई हूँ।" यहाँ नारी हृदय की महानता का परिचय लेखक ने अपूर्व कौशल के साथ दिया है। एकाध जगह पर अंजना के चरित्र में अस्वाभाविकता आ गई है। गर्भ भार से अंजना किशोरी बालिका के समान 1. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 72.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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