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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु 273 थोड़े दिन कार्यभार समेटता रहा लेकिन इन दोनों की निर्लज्जता से ऊबकर एक विश्वासपात्र आदमी को संपत्ति का भार सौंपकर अज्ञात दिशा की ओर चल पड़ा। उधर कुमारी सुशीला की दशा भी अत्यन्त बुरी थी। उदयसिंह और उसके मित्र ने सुशीला को पकड़कर सूर्यपुरा नामक गाँव के उद्यान के एक मकान में छिपा दिया, वहाँ कितने दिनों तक मूर्छित रही। क्रूर उदयसिंह ने सती सुशीला पर हाथ लगाना चाहा लेकिन उसकी रौद्र मूर्ति, अद्भूत साहस व दृढ़ शील-तेज से डरकर वह हक्का-बक्का रह गया। फिर तो उसने दूती भेजकर सुशीला को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए प्रयत्न किए लेकिन दूती को सुशीला के द्वारा आड़े हाथों ले जाने पर मुँह की खाकर वापस आना पड़ा। सुशीला की प्रिय सखी रेवती ने उसका पता लगाने के अनेक प्रयत्न किए, पर वह सफल न हुई। जयदेव जब कुंचनपुर से लौट रहा था तब रास्ते में एकाएक भूपसिंह के साथ उसका मिलाप हो गया। फिर दोनों सुशीला का पता लगाने के लिए व्यग्र होकर सचेष्ट रहने लगे। उदयसिंह की ओर दोनों को शंका थी। अतः भूपसिंह ने तुरन्त पता लगा लिया कि उसने ही उद्यान के बंगले में कैद कर रखा है। जयदेव मालिन की सहायता से सुशीला के निकट पहुँचकर संकेत से अपना परिचय देकर उसे आश्वस्त करता है। फिर योजना बनाकर तीनों पुनः विजयपुर की तरफ रवाना हुए। चारों दिशाओं में आनन्द-मंगल छा गया और दु:खी माता-पिता को आनन्द एवं सांत्वना मिली। हीरालाल की पत्नी सुभद्रा पतिव्रता और सुशीला थी, लेकिन दुष्ट, कामुक हीरालाल ने कभी उसको समुचित सम्मान नहीं दिया। अंततः राजकुंबरी व हीरालाल के पाप कृत्यों का परिचय समाज को मिल जाने से दोनों को नगर में काला मुँह करके घुमाया जाता है। और सुभद्रा तथा उसके पुत्र को संपत्ति सौंप दी जाती है। बैरागी रत्नचन्द्र दीक्षित होकर विमलकीर्ति मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए। अन्त में श्रीचन्द, विक्रम सिंह और भूपसिंह के पिता रजवीर सिंह को वैराग्य आ जाने से अपने पुत्रों को कार्यभार सौंपकर सन्यस्त ग्रहण करते हैं। रानी मदन वेगा और विद्यावती भी आर्जिका हो जाती हैं। इस प्रकार पुरातन ढांचे की काल्पनिक कथावस्तु में लेखक ने धार्मिक शिक्षा और व्यावहारिक शिक्षा का संदेश रखकर उसको मनोरंजन के साथ ज्ञानवर्द्धक भी बनाई है। घटना, स्थल व पात्र अनेक होने से कथावस्तु का सूत्र जोड़े रखने में लेखक को काफी कुशलता प्राप्त हुई है। पाठक को भी दत्त चित्त
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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