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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु 269 रहा है। वे प्राचीन जैन-ग्रन्थों का गहरा अध्ययन कर फिर जैन समाज के ज्ञान व मनोरंजन हेतु उन्हें आधुनिक भाषा-शैली में अभिव्यक्त करते हैं। मुनि श्री तिलकविजय जी भी ऐसे ही साहित्य सेवी साधु हैं, जिनका आध्यात्मिक क्षेत्र में अपूर्व स्थान है। धर्मनिष्ठ होने के कारण धर्मानुराग एवं करुणा का प्रवाह आपके हृदय में निरतर प्रवाहित होता है। धर्मानुराग की सारिणी में प्रस्फुटित श्रद्धा, विजय, उपकारवृत्ति, धैर्य, क्षमता आदि गुणों से युक्त कमल अपनी भीनी-भीनी सुगन्ध से जन-जन के मन को आकृष्ट करते हैं। उपन्यास के क्षेत्र में भी इनकी मस्त गन्ध पृथक् नहीं। वास्तव में अध्यात्म विषय का शिक्षण उपन्यास द्वारा सरस रूप से दिया गया है। कड़वी कुनैन पर चीनी की चासनी का परत लगा दिया गया है। इस उपन्यास में औपन्यासिक तत्त्वों की प्रचुरता है। पाठक आदर्श की नींव पर यथार्थ का प्रसाद निर्माण करने की प्रेरणा ग्रहण करता है। कथा-वस्तु : जिज्ञासावृत्ति को उत्तेजित करते रहने की कला का प्रयोग लेखक ने कुशलता से किया है। प्रारंभ में ही हम पाते हैं कि रत्नेन्दु अपने 15-20 साथियों के साथ जंगल में शिकार के लिए गया है। लेकिन साथियों से बिछुड़ जाने पर अकेला हो गया है। और इधर अन्य साथियों के हृदय में चिन्ता है, लेकिन नयपाल नामक उसका साथी व मित्र रत्नेन्दु की करुण पुकार सुनकर कष्ट निबारने के लिए जाता है, जहाँ एक सुन्दर कोमलांगी राजकुमारी पद्मिनी को कापालिक की जाल में फंसा हुआ देखता है। वह अपनी तलवार से कापालिक के खूनी पंजे से पद्मिनी को मुक्त करता है। सघन वृक्ष की शीतल छाया में पहुँचकर पद्मिनी अपना दु:ख निवेदन करती है और आपबीती कहती है। वह चंपानगर के राजा की राजपुत्री है, लेकिन यह दुष्ट कापालिक अचानक उसको बलि के लिए अपहरण कर यहाँ लाया है। राजज्योतिषी ने रत्नेन्दु के विषय में पहले से कहा था, अत: वह उसे तभी से आत्मसमर्पण कर चुकी थी। श्रद्धा-विभोर होकर कहती है-ज्योतिषी ने कहा-कुछ ही समय बाद रत्नेन्दु चन्द्रपुर की गद्दी का मालिक होगा। आपकी कन्या के योग्य वही वर हैं। उसी समय से में उसे अपना सर्वस्व समझ बैठी और इस असाध्य संकट मैं उनका नाम स्मरण किया। मैंने प्रतिज्ञा की है कि रत्नेन्दु के साथ विवाह करूँगी, अन्यथा आजन्म ब्रह्मचारिणी रहूँगी। इस प्रकार लेखक ने घटना-क्रम का सूत्र अच्छी तरह जोड़ दिया है। फिर इस मिलन के पश्चात् पुनः वियोग होता है। 1. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ. 61.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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