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________________ 268 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य इधर इस जन्म की नागश्री अपने दूसरे भव में श्रावक सुरेन्द्र दत्त और श्राविका यशोभद्रा का पुत्र सुकुमाल बना। माता-पिता दोनों जैन धर्म के संस्कारों से अलंकृत थे। पिता ने पिछली उम्र में पुत्र का मुख देखकर अहोभाग्य समझकर संसार से दीक्षा ग्रहण कर ली और मुनि श्री वर्धमान की भविष्यवाणी सुकुमाल भी जैनाचार्य की वैराग्यमूलक वाणी सुनकर वैराग्य ग्रहण करेगा-इसके कारण उसकी माता को चिंता होने लगी। श्राविका यशोभद्रा को यह अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन जिसके भाग्य में जैन शास्त्र की सिद्धि और तपश्चर्या लिखी हो, उसे कौन व्यर्थ कर सकता है? बड़े होने के बाद सुकुमाल अनेक भोग-विलास भोगने पर भी एक दिन महल के उपवन स्थित जिनालय में से मुनिराज की वाणी सुनकर संसार के प्रति उदासीनता आ जाने से रस्सी के सहारे महल से भागकर मुनिराज से दीक्षा ग्रहण करता है। सुकुमाल मुनि बनकर जंगल में अपनी काया का उत्सर्ग करने के लिए समाधिलीन बन गए। एक दिन वहीं एक स्यालिनी (सियारनी) और उसकी पिल्ली ने सुकुमाल मुनि के पैरों को नोंच दिया, लेकिन वे एक सच्चे योगी की भाँति अविचल क्षमा भाव से तप करते ही रहे और अनेक वर्ष असह्य तप करते हुए समाधि मरण से देवयोनि प्राप्त की। यही सुकुमाल पूर्व जन्म में नागश्री था और नागश्री अपने पूर्व जन्म में राजपुरोहित सोम शर्मा का छोटा पुत्र वायुभूत था। नागश्री का पिता नाग शर्मा-जो मुनि बनने के बाद समाधि मरण से देव बना था, वह अच्युत स्वर्ग से च्युत होकर सुकुमाल के पिता सुरेन्द्र दत्त सेठ बना। नागशर्मा की पत्नी श्री देवी ब्राह्मणी सम्यक दर्शन के अभाव से सुकुमाल की माता यशोभद्रा बनी और नागश्री का जीव-जो पद्मनाम देव हुआ था--पुण्य के प्रभाव से विख्यात धर्मात्मा सुकुमाल हुआ। इस प्रकार सुकुमाल उपन्यास में पाँच महाव्रतों की महत्ता, श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए पाँच कथाएँ वर्णित की गई हैं। कथा के भीतर कथा चलती रहने से पाठक को पात्रों की स्थिति याद रखने में मनोयोग देना पड़ता है। कहीं-कहीं धार्मिक तत्त्वों की गूढ चर्चा के कारण कथा में नीरसता भी पैदा हो जाती हैं। वैसे उपन्यासकार का धार्मिक सिद्धान्तों की चर्चा का उद्देश्य सिद्ध होता है। भाषा-शैली सरल है। जिज्ञासा पूर्ति कथानक का मुख्य अंग रहा है। आलंकारिक भाषा या नवीन शैली रहित होना स्वाभाविक है। धार्मिक वातावरण की गंभीरता व कथा के प्रवाह में उपदेश देकर जैन धर्म के महाव्रतों का वर्णन लेखक ने अच्छा दिया है। रत्नेन्दु : हिन्दी जैन साहित्य-सृजन में जैन साधुओं का भी महत्त्व पूर्ण योगदान
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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