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________________ 270 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य कापालिक का पुत्र पद्मिनी का पुनः अपहरण करता है, लेकिन तपस्वियों की सहायता से अपने पिता के पास पहुँच पाती है। रत्नेन्दु उसे प्राप्त करने के लिए घूमता रहता है। इसी भ्रमण में उसकी भेंट एक मृत्यु के नजदीक पड़े हुए धर्मात्मा श्रावक से होती है, जो अन्त समय में नवकार मंत्र को सुनकर देवगति प्राप्त करना चाहता है। यह जानकर रत्नेन्दु उनकी आखिरी इच्छा परिपूर्ण करने के लिए नवकार मंत्र का श्रद्धा से स्मरण करवाता है, जिसके प्रभाव से श्ररवक उत्तम गति प्राप्त करता है। तदनन्तर रत्नेन्दु घूमता हुआ चम्पानगरी में आ पहुँचता है और वहाँ विधिपूर्वक पद्मिनी के साथ उसका पणिग्रहण होता है। कुछ दिन वहाँ आनन्द चैन से रहने के बाद माता-पिता की याद आने पर देश लौट आता है और वहाँ राज्य संपदा का उपभोग करता है इस बीच एक बार सर्पदंश के कारण वह मूर्छित हो जाता है, लेकिन श्मशान में आकर पूर्वोक्त श्रावक-जो मरने के बाद देवगति में गया था-विषहरण कर उसे जीवन प्रदान करता है। राज्य का कार्यभार संभालते और आनन्द से जीवन व्यतीत करते हुए एक बार रत्नेन्दु बसंत ऋतु में अपने सैन्य के साथ उपवन में विहार करने जाता हैं और इस ऋतु में वृक्ष को सूखते हुए देखकर एकाएक उसको संसार की क्षणभंगुरता देखकर वैराग्य आ जाता है। उसकी धर्म विवेकमय दृष्टि खुल जाती है और आत्मसिद्धि के लिए वह चल पड़ता है। थोड़ी ही देर हमारे सामने साधु के वेश में उपस्थित होता है। चरित्र-चित्रण : कथा-वस्तु में घटनाओं की प्रधानता है, जो जीवन के तथ्यों की अभिव्यंजना करती हैं। लेखक ने पात्रों के चरित्र के भीतर बैठकर झांका है, जिससे चरित्र मूर्तिमान हो उठे हैं। चरित्र-चित्रण लेखक ने प्रत्यक्ष न कर कहीं-कहीं कथोपकथन के द्वारा तो कहीं घटना के चित्रण में किया है। प्रारंभ में ही रत्नेन्दु की शूरवीरता एवं धीरता का परिचय उसके साथियों के वार्तालाप द्वारा प्राप्त होता है, जब वह वन में अकेला भूला पड़ जाता है। उसके बिछुड़े साथी नयपाल द्वारा कितने सुन्दर ढंग से उसकी वीरता का वर्णन किया है: " 'नहीं', नहीं, यह बात कभी नहीं हो सकती, आपके विचारों को हमारे हृदय में बिल्कुल अवकाश नहीं मिल सकता। वे किसी हिंसक जानवर के पंजे में आ जाय यह बात सर्वथा असंभव हैं। क्योंकि मुझे उनकी वीरता और कला-कुशलता का भली-भाँति परिचय है। 'उसी प्रकार रत्नेन्दु के भीतर दया,
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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