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पञ्चम - अध्याय
आधुनिक हिन्दी - जैन- गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
आधुनिक युग वैज्ञानिक प्रगति का युग है। विज्ञान ने मानव के लोक एवं भावलोक को भी पर्याप्त प्रभावित किया है। उसकी अभिव्यक्ति में भी वैज्ञानिक पद्धतियों का समावेश हो गया है। मनुष्य केवल भावलोक का प्राणी न रहकर उन्हीं की ठोस जमीन पर भी चलता है। वह प्रत्येक वस्तु का शोधन तर्क और विचार की कसौटी पर करता है। कविता तर्क का क्षेत्र नहीं रही गद्य ही तर्कशील मानव का अस्त्र रहा है। इसी गद्य में आधुनिक युग के साहित्यकारों ने विविध विधाओं का सर्जन किया। कहानी, उपन्यास, निबंध, रेखाचित्र आदि सभी विधाएँ इसी युग की देन हैं।
हिन्दी साहित्य के संदर्भ में भारतेन्दु युग इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस युग को गद्यकाल भी कहा गया है। हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत जैन-धर्म-दर्शन के तत्त्वों को लेकर साहित्य रचना करने वाले रचनाकारों ने भी गद्य की विभिन्न विधाओं में अपना योगदान दिया है। विशिष्ट प्रकार की साम्प्रदायिक मान्यताओं और नियमों की सीमा के कारण जैन साहित्य में उतनी उत्कृष्ट कोटि की गद्य रचनाएँ यदि नहीं प्राप्त होती हैं; तो आश्चय नहीं । तथापि जो साहित्य उपलब्ध है, वह निरा उपेक्षणीय भी नहीं है। उसका भी विशिष्ट संदर्भ में महत्त्वपूर्ण स्थान
है।
जैन गद्य साहित्य की यह एक विशेषता या महत्ता कही जायेगी कि जब हिन्दी में गद्य का प्रारंभ हो रहा था, तब भी जैन साहित्य कारों ने प्राचीन प्राकृत - अपभ्रंश के ग्रन्थों व काव्यों का धर्म प्रीत्यार्थ व समाज कल्याण हेतु अनुवाद ओर वचनिकाएँ सुन्दर भाषा में लिखी ।' जिसकी भाषा काफी शुद्ध व सरल है दार्शनिक ग्रन्थों व काव्य ग्रंथों के भाषानुवाद द्वारा गद्य को पुष्ट करने के साथ जैन समाज पर भी इन साहित्यकारों ने उपकार किया है। प्रारंभिक गद्य
1. संवत् 1818 बरुवा निवासी पं० दौलतराम जी ने हरिवेणाचार्यकृत जैन 'पद्मपुराण' का गद्य में भाषानुवाद किया। आचार्य शुक्ल कृत 'हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० 281.