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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
वे थे अंजन एक दिन हुए निरंजन रूपं सर्व कर्म का नाश कर, शीघ्र बने शिव भूप। हम भी अपने हृदय से, करे पाप-मल दूर। दो भगवन् करके कृपा शक्ति हमें भरपूर॥
दूसरे काव्य 'त्याग' में काक-माँस के त्याग की मुनि से प्रतिज्ञा करने के बाद भील उसमें अटल रहकर प्राण लेवा बीमारी में भी वैद्य के कहने पर भी काक-माँस का इन्कार करता है, क्योंकि मृत्यु तो जब आनेवाली है, तब आयेगी ही, प्रतिज्ञा-भंग कैसे की जाय? स्वजनों के समझाने पर भी वह अडिग रहता है। और धर्म में मन लगाकर शान्ति से प्राण त्याग देता है एवं देवगति पाकर धन्य हो जाता है। अतः कवि उचित ही कहते हैं :
त्याग करो मन से करो, तब आये तो आय। पर न प्रतिज्ञा से कभी, मन विचलित हो पाय॥ अपने व्रत पर दृढ़ रहो, तजो न व्रत को भूल। यही सार संसारी, सब धर्मों का मूल॥ (पृ. 13)
भीमा नामक भील ने काक-मांस त्याग के पश्चात् भयंकर उदरशूल के समय जीवन को तृण समझ अपने मित्र मंगल को धर्म वचन सुनाने को कहता
यों मंगल था कर आप धर्म उपदेश। भीमा के सब कह रहे, मानो मन के क्लेश॥ अंत समय निज जान कर, भीमा ने कर जोड़ नमन किया गुरु देव को, दिये प्राण निज छोड़। (पृ. 23) पाप तजो, भगवत भजो यही पुण्य की खान। त्यागो हिंसा क्रूरता यही अहिंसा धर्म। यथा शक्ति पालन करो पाओगे सुख शैली।
इस प्रकार सीधी-सादी शैली में लिखे गये ये दो लघु पद्य कथाएँ विशेष साहित्यिक महत्व न रखता हो तो भी इसका महत्व काफी है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य-साहित्य की अपनी सीमाएँ होने पर भी उसका महत्व उल्लेखनीय रहेगा। गद्य की तुलना में इसका परिमाण सीमित हैं, फिर भी पद्य का प्रभाव अक्षुण्ण रहता है। धार्मिक बंधनों के कारण जैन काव्य-कृतियों का कम सृजन होता है, फिर भी जितनी उपलब्ध हैं, उनका अपनी दृष्टि से विशिष्ट योगदान स्वीकार्य होना चाहिए।