________________
प्रथम अध्याय विषय प्रवेश
जैन धर्म की प्राचीनता :
विश्व के प्रमुख धर्मों से एक महत्वपूर्ण धर्म के रूप में जैन धर्म को स्वीकारा जाता है। इस धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर (ई. पू. छठी शताब्दी) ने विश्व को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह तथा समानता के महान सिद्धान्त-रत्नों की अनमोल भेंट दी। वैसे भगवान महावीर जैन धर्म के आद्यस्थापक या प्रथम तीर्थंकर नहीं है। जैनधर्म अति प्राचीनकाल से प्रचलित रहा है। इसके प्रथम व्याख्याता व आदि तीर्थंकर के रूप में भगवान ऋषमदेव जैनियों में सर्व स्वीकृत हैं। ऋग्वेद और भागवत पुराण में भी जैन धर्म के संस्थापक और विष्णु के चौबीस अवतारों में वे आठवें अवतार के रूप में उनका महत्व प्राप्त होता है। इसीलिए जैनियों के मतानुसार जैन धर्म भगवान ऋषमदेव ने चलाया तो सचमुच ही उनका मत वैदिकी मत से कुछ कम ही प्राचीन है। भागवत पुराण जैनियों की श्रीमंताई की भी पुष्टि करता है। महावीर के पुरोगाभी 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तो इतिहास-सिद्ध धार्मिक नेता के रूप में मान्य हैं ही। पार्श्वनाथ ने ऋषमदेव के समय से उद्भाषित जैन धर्म के विछिन्न स्वरूप को व्यवस्थित कर संघ स्थापित किया। सभी पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वान पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में मान्य करते हैं। पाश्चात्य विद्वान कोलब्रुक कहते हैं कि 'पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे, ऐसा मेरा मानना है। महावीर और उनके शिष्य सुधर्मा ने जैन धर्म का पुनरोद्धार करके संपूर्ण रूप से व्यवस्थित किया। महावीर और उनके पुरोगामी पार्श्वनाथ दोनों को सुधर्मा और उनके अनुयायी तीर्थंकर (जिन) के रूप में पूजते थे और आज
1. द्रष्टव्यः छान्दोग्य उपनिषद 7, पृ. 26, शिवपुराण, 2, ऋग्वेद 1, 7
कैलासे पर्वतैरम्ये, वृषभो यं जिनेश्वरः। चक्कार रचावतारं यः सर्वज्ञः सर्वत्रः शिवः ।।2।। शिवपुराणं प्रोत्त्म नाभिस्तु जनवेन पुत्रं, मरुवेप्या मनोहरम्।
कृषभं क्षत्रिय श्रेष्ठं सर्वदात्रस्य पूर्वजम् ।।2।। ब्रह्माण्डपुराणे प्रोत्त्म 2. डा. देवराजन्-दर्शन शास्त्र का इतिहास, पृ० 620
डा. राधाकृष्णन्-भारतीय विचारधारा, पृ॰ 133