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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन 217 तृतीय सर्ग तक कथावस्तु में वर्धमान की उदासीनता, माता-पिता की चर्चा, कुमार को ब्याह के लिए प्रसन्न करने के प्रयास स्वरूप माता से सम्बोधन, दोनों की स्पष्टता तक तो ठीक है, लेकिन चतुर्थ सर्ग में राजा पुनः कुमार को राजगद्दी संभालने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करते हैं, अपनी मजबूरियाँ भी जाहिर करते हैं। पिता सिद्धार्थ की यह इच्छा स्वाभाविक है। वर्द्धमान से एक बड़े पुत्र नन्दिवर्धन (युद्धवीर) के होने पर भी छोटे पुत्र को गद्दी संभालने के लिए अनुनय-विनय करना अनुचित और अव्यावहारिक भी है। हाँ, यह बात स्वीकार्य हो सकती है कि वैराग्योन्मुख युवा पुत्र को शादी करके राज वैभव और सुख संपत्ति के लिए प्रेरित करना या आदेश देना पिता का कर्त्तव्य हो सकता है। लेकिन युवा पुत्र के सामने पिता का नारी सौंदर्य, यौवन-दाम्पत्य जीवन की रसमय स्थिति का वर्णन करके उसे विवाह के लिए विनती करना भद्दा-सा प्रतीत होता है। जो कार्य मित्र या समवयस्क या अन्य किसी का हो सकता है, वह राजा सिद्धार्थ के द्वारा करवाना अनुचित महसूस होता है। 'विराग' का अन्तर्द्वन्द्व : ___ 'विराग' खण्ड काव्य में कवि सुधेश ने महावीर के जीवन का चाहे एक ही सुन्दर अंश कथावस्तु के रूप में लिया हो, लेकिन जगह-जगह पर 'विराग' में प्रमुख तीनों चरित्रों के-वर्धमान, त्रिशला व सिद्धार्थ-मानसिक संघर्ष का अच्छा अंकन किया है। वर्धमान तो प्रथम खण्ड से ही चिंतित, दीक्षा में डूबे हुए दिखाई पड़ते हैं। राग-विराग की तीव्र स्पर्धा में उनका विराग जियी होता है। माता त्रिशला भी पुत्र को विवाहित देखने के लिए काफी उत्सुक होने पर भी पुत्र की उदासीनता देखकर चिंतित भी हैं। पिता सिद्धार्थ अन्य बहुत से राजाओं के प्रस्तावों को स्वीकृत न कर पाने से उदास हैं, क्योंकि कुमार वर्धमान व्याह के लिए साफ इन्कार ही करते हैं। कुमार को समझा-बुझाकर ब्याह के लिए सहमत कराने के लिए माता त्रिशला हृदय में विश्वास एवं श्रद्धा लेकर जाती हैं लेकिन सामने कुमार का वैराग्य, प्राणी-कल्याण के लिए गृह-त्याग की अडिग इच्छा हिमालय की भाँति स्थित है, तब दोनों के बीच जो संवाद चलते हैं, वहाँ दोनों का मानसिक अन्तर्द्वन्द्व शाब्दिक रूप धारण कर लेता है। माँ के हृदय की चाह, ममता, आक्रोश, बिनती, मातृ-अधिकार, भाग्य विडम्बना आदि विविध भावानुभूतियों की अभिव्यक्ति में कहीं-कहीं तो ऐसा अनुभव होता है कि कवि ने माँ के हृदय को ही निकाल कर रख दिया है। पुत्र के पास पहुँचते ही अपनी ममता एवं पुत्र के कर्त्तव्यपालन पर विश्वास कर धड़कते हृदय से ही त्रिशला रानी पूछ बैठती हैं-तुम बहते इस समय कौन-से
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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