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________________ 218 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य रस मैं? पुत्र के प्रति कुमार स्नेह के कारण अन्य जीवों के दुःखों से दु:खी, उदास, चिंतित पुत्र से माँ प्रश्न करती है इन पशुओं को तो जलना, पर तुम भी व्यर्थ जलोगे? है मरण भाग्य में जिसके, क्या उसके लिए करोगे?' पिता के अनुनय-विनय की अपेक्षा माता का व्यवहार और पुत्र वात्सल्य विशेष स्वाभाविक और गहरा प्रतीत होता है। वह कभी पुत्र से आँचल फैलाकर भीख मांगती है, तो कभी अपने ही खोटे भाग्य को कोसती हुई पुत्र को शर्मिंदा बनाती है, तो कभी सास बनने के अपने अधिकार को मांगती है, वह अपने भाग्य को कोसती हुई कहती है 'यदि काश! कहीं विधि तुमको, अंतस्थल माँ का देता। मेरा ममत्व तो पुत्र पर, विजय प्राप्त कर लेता॥ अब इतने पर भी कुमार पिघलते नहीं हैं तो वह विकलता एवं विवशता से आहत होकर नम्रता से बिनती करती है: मत दुःखी करो तुम मुझको, दो उत्तर ऐसा कोरा। मानों न मोह को मेरे, तुम अति ही कच्चा डोरा॥ दिन गिन गिन दशा हुई जब, परिणय के योग्य तुम्हारी। तब कहते हो मम ममता। पाने के योग्य न नारी। निज सुत अविवाहित हो यह, जननी के लिए असह ही, मुख पुत्र बधू का देखे, माँ बनने का फल यह ही। माँ अपने भाग्य को तो कोसती है, लेकिन पुत्र की इस वैरागी दशा से दुःखी, चिंतित होती है, वह साश्रु प्ररित करती हैं है लगी तुम्हारे परिणयकी चिन्ता जगते सोते। दृग जल से रिक्त हुए हैं, भुख से थोते॥ 1. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' द्वितीय सर्ग, पृ० 21. 2. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' द्वितीय सर्ग, पृ० 22.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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