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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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और सर्ग के अंत में भी यही विचारधारा उद्धेलित रहती है जिसका कवि ने वर्णन किया है
कुछ दिन इस भाँति समस्यासुलझाने में ही बीते। इस रण राजभवन के बन्धन ही अब तक जीते॥ वे होना चाह रहे थे, सत्वर स्वच्छंद विहंग से। हो चुका विराग उन्हें था इस सुख विलास के जग से॥'
चतुर्थ सर्ग में पुनः एक बार कुमार को जोर देकर समझाने के लिए आते हैं। इस बार ये अपनी वृद्धावस्था, अशक्ति एवं कुमार के कर्तव्य के विषय में अपने विचार व्यक्त करते है। महावीर को राज्य-कार्य संभालकर पिता को सांसारिक बंधनों एवं कार्यों से निवृत्ति देकर धर्म में प्रवृत्त होने के लिए भी शासनतंत्र को संभाल लेना चाहिए, ऐसा अभिमत साग्रह वे प्रकट करते हैं। इसके सामने अडिग कुमार सब कुछ करने के लिए उद्यत हैं, लेकिन वैवाहिक बंधन में बंधने के लिए एवं राज्य भार संभालने के लिए तनिक भी इच्छुक नहीं हैं। पांचवें सर्ग में सदन-त्याग करने का पक्का निर्णय लेकर दीक्षा का निर्धारण जाहिर कर देते हैं। अन्त में कुमार वर्धमान के विराग की सांसारिक राग-अनुराग व वैभव-विलास के सामने विजय होती है-कुमार दृढ़ता से सोचते हैं
भवनों का वास तजूंगा, तज दूंगा सारी माया। मिट जाऊँगा, जल-श्रद्धाका रूप बदल दूंगा या।
खण्ड काव्य के अन्त में कवि विरागी कुमार वर्धमान की विजय को स्वीकार करते हुए गाते हैं
तब तक सब कीर्ति रहेगी, जब तक रवि-चन्द्र जगत है। वह जग का मत बल होगा,
जो आज तुम्हारा मत है। 1. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' तृतीय सर्ग, पृ० 45. 2. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' पंचम सर्ग, पृ० 59. 3. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' पंचम सर्ग, पृ० 72.