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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
कुमार वर्धमान का करुणा व प्रेम से द्रवित हो सत्पथ की ओर अग्रसर होने का संदेश दिया है। कवि ने वर्धमान के दिव्य जीवन के उस आलोक को अभिव्यक्त किया है, जो हमारे वर्तमान जीवन को भी प्रकाशित करने में प्रेरक हो सकता है। कथावस्तु :
___ इस काव्य की कथावस्तु अत्यन्त संक्षिप्त है। खण्डकाव्य होने से वर्धमान के जीवन की संपूर्ण घटनाओं की चर्चा इसमें अपेक्षित नहीं है। पाँच सर्गों में इसकी कथा विभक्त है, जिनमें कथा का विस्तार कम है, भावनाओं व विचारों का विश्लेषण अधिक है। प्रथम सर्ग से ही कुमार वर्धमान प्रात:कालीन प्रकृति सौंदर्य का रसपान करते हुए दिवा में चिंतित हैं, एक ओर से माता-पिता का विवाह के लिए प्रेमपूर्ण आग्रह व अनुनय तथा दूसरी ओर स्वयं इस विवाह से विमुख होने से जैन दीक्षा अंगीकार करने की दृढ़ता में बंटे हुए हैं, लेकिन अंतिम सर्ग में कुमार वर्धमान की जग-कल्याण की भावना विजयी होती है। द्वितीय सर्ग में पिता सिद्धार्थ कुमार को विवाह के लिए प्रोत्साहित करने के लिए विशद्ता से यौवन-प्रेम, नारी-सौंदर्य, धन-संपत्ति, विवाहित जीवन की मधुरता
आदि का कुमार के सामने चित्र खींचते हैं, लेकिन कुमार अपने वैराग्यपूर्ण विचारों के कारण पिता के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते। विवश, निराश होकर राजा सिद्धार्थ को वापस आना पड़ता है और माता त्रिशला विश्वास लेकर वर्धमान को विवाह के लिए सहमत कराने के लिए आती हैं। माता-पुत्र के वार्तालाप को कवि ने तृतीय सर्ग में भावपूर्ण शैली में अंकित किया है। एक ओर है माता का प्यार, मजबूरी, इच्छा-आकांक्षा एवं अश्रु तो दूसरी ओर है पुत्र का संयम, जग-कल्याण के लिए महल में रहकर संसार के बन्धनों में न बंध ने की प्रबल वृत्ति, दीक्षा अंगीकार कर चिन्तन-मनन के द्वारा प्राणीमात्र के कल्याण का मार्ग ढूंढने की लगन। यहाँ भी माता को भिन्न-भिन्न तरीकों के समझाने-बुझाने के बावजूद खाली हाथ लौटना पड़ता है। त्रिशला जाती है तब हृदय में अदम्य विश्वास लेकर, लौटती है तो बिल्कुल थकी-हारी भग्न हृदय होकर। इस सर्ग के प्रारंभ में ही कवि ने वैराग्य में डूबे हुए कुमार की स्थिति का संकेत कर दिया है
सन्मति वैराग्य-उदधि में, जाते थे प्रति क्षण बहते। जग-दशा देखते थे वे,
नप-मंदिर में ही रहते॥' 1. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' तृतीय सर्ग, पृ० 35.