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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन माता का हृदयद्रावक शोक-विलाप सुन कर ही गर्भस्थ तीर्थंकर को निश्चय करना पड़ा कि 'अभी मैं गर्भ स्थिति में हूँ, फिर भी इतनी अद्भुत स्नेह वर्षा। इतना असीम प्रेम मोह है कि केवल मेरे हिलने-डुलने की क्रिया स्थगित कर देने से माता को इतना आघात लगता है, तो यदि मैं उनकी उपस्थिति मैं दीक्षा अंगीकार कर लूँ तो उनका क्या हाल हो जाय ? शायद वे जीवित ही न रह पाए। अतः उनकी उपस्थिति में मैं दीक्षा ग्रहण नहीं करूँगा और उनकी प्रसन्नता का ख्याल रखूँगा । इसी कारण कुमार वर्द्धमान ब्याह के लिए पूर्ण विरागी एवं अनिच्छुक होने पर भी 'हाँ' कर देते हैं और गर्भ समय की प्रतिनुसार दीक्षा भी माता-पिता की मृत्यु के अनन्तर लेते हैं। माता त्रिशला की व्याकुलता देख बालगर्भ ने फिर से यथावत क्रिया प्रारंभ कर दी तो माँ के मन में कितना हर्ष - आनन्द छा जाता है गर्भ चलन क्रिया को जाने, बड़े प्रमोद मात मन माने । स्नान विलेपन किये उमंगे, अम्बर उत्तम पहिरे अंगे ।। 3-90।। अब माता के जी में जी आया और स्नान - विलेपन व वस्त्राभूषण सब में रुचि पैदा हुई। उसी प्रकार जामालिकुमार - प्रभु महावीर के जमाई - प्रभु की देशना सुनकर संसार असारता पैदा होने से दीक्षा लेने का निश्चय करते हैं और अपनी माता की संमति लेने जाते हैं, तब दीक्षा की बात सुनकर माता के हृदय पर क्या गुजरती है। माँ चकराकर मूर्च्छित हो धरती पर लुढ़क जाती है होंगे पुत्र-वियोग विचारी, माता मन दुःख भया अपारी । मोह महिमा महाबलवाना, मातृ-प्रेम जाय बखाना॥ 7-76॥ शिथिल भया तन मूर्च्छा आई, धरणी तल पे डल गई गभराई । आये भयभीत दौड़ परिजन, निर्मल जल को लिन्हा सिंचन। 77॥ माँ का आर्द्र कोमल मन प्रारंभ में दीक्षा की इजाजत के लिए इन्कार करता है। राजमहल में रहकर कुछ धर्म- ध्यान करने के लिए प्रेरित करती है। सुख भोगने की उम्र में पैतृक संपति को भोगते हुए आनन्द चैन से रानियों के साथ आराम से जीने को कहती है और दीक्षा की इजाजत नहीं देती। लेकिन जामालिकुमार का दृढ़ निश्चय देखकर माँ अकुलाती है, अपने निर्णय से हटने की अनिच्छा होने पर भी बेटे का दृढ़ निर्णय देख पसीज जाती है और पुत्र को दीक्षा के बाईस परिषहों, कष्ट, ताप, तपस्या, श्रम सभी का निर्देश कर समझाती - बुझाती है, शायद कष्टों का वर्णन सुनकर बेटा दीक्षा का विचार छोड़ दे। तदनन्तर माँ उसे वडीलोपार्जित धन-वैभव, रानियों के अनुराग - माया-ममता, सुख-वैभव-विलास, मृदु राजतंत्र की कोमल मोह-डोर से बांधना चाहती है लेकिन लाख कोशिश करने पर बेचारी माँ को निष्फलता प्राप्त होती है और 205
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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