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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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में इस सम्बंध में कोई चर्चा प्राप्त नहीं है और महावीर के विवाह सम्बंध में कोई निश्चित मत न होने से कवि वियोग श्रृंगार का विनियोजन नहीं कर पाये।
महाकाव्य के लिए आवश्यक प्रमुख शान्त और श्रृंगार रस का तो निर्वाह कवि ने किया है, लेकिन गौण रूप में वीर, करुण, अद्भुतादि अन्य रसों का भी प्रयोग हुआ है। कवि ने स्वयं कहा है
हास्य, सिंगार, वीर, करुणा के शांत भैरव भाखे। होये कुछ भी विभत्स लिखाये, अद्भुत रस कहीं दिये बताये॥'
शांत रस की चर्चा के साथ कवि ने वीर. भयानक, अद्भुत व करुण आदि अन्य रसों का भी संक्षेप में सुन्दर वर्णन किया है। इन रसों के निरूपण में-विशेषतः वीर के-कवि को पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है। तृतीय काण्ड में बालक वर्द्धमान अपने साथियों के साथ बालोचित क्रीड़ा करते हैं, परीक्षा लेने के लिए एक देव भयानक रूप धारण कर वहाँ जा पहुँचते हैं। सभी बालक तो इस भयंकर, विकराल सर्प देखकर घबड़ाकर दौड़ते हुए भागने का उपक्रम करते हैं, जबकि प्रभु तनिक भी न डरते हुए उसके सर पर सवार होकर हाथों से पीटने लगते हैं। तीर्थन्कर की कसौटी करने वालों की कैसी अवदशा होती है, इसका कवि ने सुन्दर वर्णन किया है। जब भयानक आदमी के रूप में भी बालक वर्द्धमान डरे नहीं, चलायमान न हुए तो उस मिथ्यात्वी दैव ने कैसे भयानक नाग का रूप धारण किया
ऐसे मन विचार कर आया, बड़ा स्याल का रूप बनाया। कानन महिष सींग काला, धरा रूप अतिशय विकराल॥ 2-172॥ रक्तचूड़ सम अति अरुणा, आँखों में बहुत ही घरवाई। जबरदस्त फन ठोप फुलाई, रसना इव बहुत हि लपकाई। 173।। फुत्कारत मुख बने न देखा, घोर भयंकर वक्र विशेषा। त्वरित गती से संमुख आया, जीर्ण रज्जुवत जिन फगवाया। 174॥
फिर उसने बालक का वेश लेकर अपने ऊपर दांव ले लिया, ताकि कुंवर उसकी पीठ पर सवार हो जाय और वह उसे जोर से पछाड़ दे। लेकिन कुंवर तो त्रिभुवन नायक है। जैसे ही कुंवर पीठ पर सवार हुए, उसने पिशाच रूप बना लिया
तुरन्त पिशाच रूप बनवाके, भागन लगे पीठ चढ़के। कर्कश केश मुंड सम भासे, मस्तक घट पर घटा विकासे।।177॥ मुकुटि भयंकर लोचन लाला स्त्रवत अनल की ज्वाला।
गिरिवर गुहा सीरखी नासा, अघर ऊष्ट्र सम लटकत लासा।। 178॥ 1. द्रष्टव्य-कवि मूलदास कृत-'वीरायण'. प्रथम खण्ड