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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
घन मूर्छित जन अपना धन, मोह कभी न तजत। उनसे आतम हीलके, दुष्कर तप क्यूँ तपत।। 3-384॥ सर्व विरति इच्छा के धारी, तजहु मोह धन हृदय विचारी।
आत्मा तो उनको गिन लहिये, भव्यात्मा इनको किमि करिये॥ 385॥
महावीर के दीक्षा-अंगीकार-प्रसंग पर देवतागण स्तुति वंदना करते हुए गाते हैंमाया मोह अति कठिन बन्धन, तुम सिद्धारथ नंदन। अंधकार अज्ञान नसावन, संत कमल मन को विकसावन॥ 3-408॥ सहस्रांशु सम आप अनूपा, धन्य धन्य जय सिद्धि स्वरूपा। गुन सागर नागर गुन आपन, कहन चहत को बोहि ठिठापन॥ 3-409॥
इंद्रियों के विकास को जीत कर ही महावीर 'जितेन्द्रीय' के नाम से जग में विख्यात हुए। क्योंकि वृत्तियों को जीतना अत्यन्त दुष्कर कार्य हैकिन्नर सुर गन्धर्व अनेका, करत कंठ गदगदित विवेका। मार हस्ति मदमस्त जितन अस, सुने न समरथ आप समे कस॥ 3-407॥ - इसी प्रकार प्रभु की महिमा का गान करते हुए इन्द्र महाराज स्तुति करते
अचल अनंत निरंजन पेखा, भव अष्धि तारन तुम रेखा, बारंबार बंदन प्रभु मेरे, स्वीकार हूँ दीन किंकर करे॥ 3-51॥
सप्तम काण्ड के अन्तर्गत भगवान महावीर के उपदेश में भी शान्त रस की धारा प्रवाहित होती है। संसार की अनित्यता एवं वैभव-विलास के त्याग का महत्व प्रतिपादित कर शान्ति का मार्ग बतलाया है
वृद्धावस्था व्याधि से, घेरित तन दुःख पात। अति श्रम ते लक्ष्मी, सोविद्युत समुझात॥ 7-55॥ सुत दारा संयोग वियोगा, उपजावत अति हर्ष सोगा। क्षण भंगुर जल बिची समाना, होत जात निश्चय जन जाना॥ 511 तृष्णा विषय लुब्धता घेरे, करत अकाज अधर्म घनेरे। धर्म रूप पाथेय लिये बिन, बनत अचिंते यम के आधीन। 57॥
इस प्रकार वीरायण काव्य में शान्त रस का मुख्य स्वर प्रतिपादित होता है। इसके साथ शृंगार रस का निरूपण कवि ने यथावसर कर काव्य में रसात्कता व लालित्य पैदा किया है। वीरायण में कवि ने भगवान की पूज्या माता त्रिशला के रूप सौंदर्य, यौवन और दाम्पत्य-रस केलि का वर्णन न कर सर्वथा औचित्यता का निर्वाह किया है। इससे किसी की श्रद्धा को ठेस पहुँचने का या