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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
में ही प्रयोग किया जाता है। किसी भी काव्य में किसी भी रस का सांगोपांग विकास नहीं होता है। किसी भी रस के विनियोजन के लिए उसके स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भावों का संयोग आवश्यक रहता है, जबकि 'वीरायण' में शान्त, शृंगार या वीर किसी के स्थायी भाव का क्रमिक विकास दृष्टिगोचर नहीं होता। केवल रस के छींटे ही प्राप्त होते हैं। काव्य का मूल स्वर शान्त रस अवश्य है क्योंकि भक्ति-भावना, स्तुति-प्रार्थना, अनुनयादि का वर्णन कवि ने स्वयं विशेष किया है। शृंगार के लिए भी उसके स्थायी भाव रति का स्वरूप प्राप्त नहीं है, लेकिन तीन-चार जगह केवल रूप-वर्णन तक ही कवि सीमित रहे हैं। कवि मूलदास ने शान्त रस की परिक्वता के लिए कुमार वर्द्धमान एवं युवा महावीर के निर्वेद, चिंतन, वैराग्य या उसी से सम्बंधित विचार-व्यवहार को 'वीरायण' में चित्रित नहीं किया है। उन्होंने बालक वर्द्धमान से तुरन्त विवाहित युवा महावीर को प्रस्तुत किया है। फिर नव युवा महावीर के दाम्पत्य जीवन का, प्रेमोल्लास का भी वर्णन न कर उनके दीक्षा-निर्णय व उत्सव का वर्णन विस्तृत रूप से कवि करते हैं। अतः पूरे काव्य का प्रमुख रस शान्त कहे जाने पर भी उसका क्रमिक विकास प्राप्त नहीं है। शान्त और वीर रस के लिए भी यही स्थिति है। जबकि 'वर्द्धमान' महाकाव्य में कवि अनूप ने वर्द्धमान का प्रगाढ़ चिन्तन, सांसारिक व्यवहारों से उदासीनता, निर्वेद स्थिति आदि का सुंदर वर्णन किया है। 'वीरायण' में महावीर के निर्वेद की अनुभूति को कहीं प्रकट नहीं किया गया है। माता-पिता की मृत्यु पर कवि कहते हैंइन्द्रजाल सब स्नेह समझना, स्वारथ लागि गिनत जन अपना। क्षण भंगुर यह देह कि सपना, फोकट तो फिर काहि कलपना। 3-352।। योग-वियोग हि सन्ध्या रंगा, अटल नियम चिर काल अभंगा। नश्वर यह जग दिखों तपासी, प्रभुनाम शाश्वत अविनाशी॥3-353॥ दोहा- किसिकुं न छोड़े काल कब, शोधो सकल जहान।
कर्तव्यों पालन करो, अटल नियम यही जान।। 3-354॥ - महावीर के दीक्षा-प्रसंग पर कुल की वृद्धा स्त्री उनको दीक्षा के कष्टों, महत्वादि के विषयों में बताती हैं। महावीर भी उन कठिनाइयों को सहने की तैयारी बताते हुए अपने वस्त्राभूषणों का त्याग कर सर्व को नमस्कार करते हैं
स्वयं जिनेश्वर वचन उचारा, वेदों में पदसिद्ध उदारा। बोसिरायी सावध्य त्रिविध, चरणाम्बुज वेदों सह सिद्धे॥