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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
तथा महावीर के परापूर्व के शत्रु के रूप में ग्वाला की धृष्टता का वर्णन रहा है। इस काण्ड में करुण-कथाएं करुण रस की निष्पत्ति द्वारा भावान्दोलित करने में सहायक होती है। अंतिम सातवें काण्ड में सती चन्दना के दीक्षा महोत्सव का वर्णन कवि ने अत्यन्त उल्लास से किया है। महावीर की पुत्री प्रियदर्शना एवं जामातृ जातालि कुमार का माता से आज्ञा मांगना व दीक्षा अंगीकार करने की कथा मुख्य कथा से सम्बंधित है । तदनन्तर, चंदन तथा रानी मृगावती के 'केवल ज्ञान' - प्राप्ति की कथा सम्मिलित है, इसमें ही महावीर के द्वारा जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए गौतमादि ग्यारह विद्वान् ब्राह्मणों को दीक्षित करने की घटना तथा महावीर के उपदेशों का वर्णन भी किया है। अनेक कथाओं के रोचक ढ़ंग से किये गये वर्णन से कवि का जैन धर्म के ज्ञान का परिचय प्राप्त होता है। गौतम और महावीर ज्ञान-कथा, कलीकाल के वर्णननादि में तत्विषयक ज्ञान तो अवश्य झलकता है लेकिन कथानक को अनावश्क लम्बा करने के साथ शिथिल भी बनाता है।
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कथावस्तु के उपर्युक्त उल्लेख से 'वीरायण' की कथावस्तु हमारी समझ में आ जाती है तथा कवि की कथा वस्तु के प्रभाव को बनाए रखने की क्षमता आदि का भी पता चल जाता है। कवि मूलदास ने 'वीरायण' की रचना रामचरित मानस के अनुकरण में की थी किन्तु न तो कवि के पास मानसकार जैसी काव्य क्षमता थी और न पारपंरिक काव्य ज्ञान ही, केवल निष्ठा, लगन तथा जैन साधु के आदेशानुसार 'वीरायण' की रचना की थी। अतः स्वाभाविक है कि काव्य में शिथिलता दृष्टिगत हो । 'वीरायण' कथा संगठन में शैथिल्य है; अनावश्यक विस्तृत वर्णन है पौराणिक शैली की झलक है, तथापि काव्य क्षेत्र में आलम्बन रूप में प्राय: अचर्चित भगवान महावीर को नायक रूप में प्रस्तुत करके उनका सविस्तार वर्णन तथा महावीर कथा को काव्यात्मक सौष्ठव प्रदान करने की दृष्टि से 'वीरायण' साहित्य इतिहास की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। रस - विवेचन :
कथावस्तु के विवेचन के उपरान्त 'वीरायण' महाकाव्य में प्रमुख रसों की चर्चा उपयुक्त रहेगी। मूलदास जी के इस महाकाव्य में शांति एवं श्रद्धा के प्रतीक भगवान महावीर प्रमुख नायक के रूप में होने से यह स्वाभाविक है कि शान्त रस की प्रचुरता अन्त तक पायी जाती है । कवि ने शान्त रस के साथ गौण रसों में शृंगार, वीर, रौद्र आदि का भी समायोजन किया है। जैन साहित्य में शृंगार की अपेक्षा शांत रस को प्रमुखता दी जाती है। शृंगार रस को परंपरा निर्वाह के रूप में ही अपनाया जाता है। उसका भी शिष्ट सौम्य व उदात्त रूप