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________________ 196 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य वर्णन से कथा का प्रवाह वेगवन्त रहता है। तथा कथा-क्रम का सातत्य बना रहता है। वर्धमान का जन्म संस्कार मेरु पर्वत पर इन्द्रादि देवों द्वारा होता है, जिसका कवि ने भव्य वर्णन किया है। ऐसे प्रतापी बालक को जन्म देने के लिए त्रिशला की महानता स्वीकार कर इन्द्र उनका जयगान करते हैं। जय जय मातु तुल्या, रत्नाकर त्रिशला अनुकूला। धन्य धरातल जन्म तुम्हारा, तीर्थंकर जिन उदर पधारा॥ आप गोत्र शुभ गगन समाना, प्रगट शशि जिन भगवान। मानव जन्म धन्य फल पायो, दिन बोहित भव-रास्थ तरायो॥ इसी सर्ग में विधिवत् अध्ययन का प्रसंग भी रहता है। गुरु-महिमा एवं भक्ति पर कवि ने यहाँ काफी विस्तार से लिखा है, जिससे ग्रंथ का आकार बढ़ गया है। बड़े होने पर माता-पिता की आज्ञा से न इच्छा से यशोदा के साथ पाणिग्रहण करने की घटना का यहाँ कवि ने सुन्दर वर्णन किया है। इसके अनन्तर पिता की मृत्यु के उपरान्त संसार की असारता देख कर बड़े भाई नंदिवर्धन से दीक्षा की आज्ञा लेकर दान का प्रवाह एक वर्ष पर्यन्त प्रारंभ करते है तथा भागवती दीक्षा अंगीकार करते हैं। कवि ने महावीर के गृहत्याग, दीक्षा के कष्टों का, बड़े भाई व प्रजा के वियोग की कथा का तन्मयता से वर्णन कर करुणा रस का आस्वादन करवाया है। चतुर्थ काण्ड में भगवान महावीर की तपस्या तथा दीक्षा के अनन्तर साढ़े बारह वर्ष तक के परिभ्रमण का कवि ने वर्णन किया है, जिसका मुख्य कथा के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होकर परोक्ष रूप से है। इसी समय महावीर के चिन्तन-मनन की तीव्रता ऊर्ध्वगति पर पहुँचती है, अनेकानेक कठोर कष्टों को वे शान्ति एवं समत्व से सहते हैं, जिसके फलस्वरूप केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। विविध अवान्तर कथाएँ इसी कांड में स्थापन पाती हैं। उसी प्रकार विविध वस्तु वर्णन व प्रकृति वर्णन भी यहीं हुआ है। इस काण्ड के निरीक्षण-परीक्षण से कवि ने समावृत की है। मंखली पुत्र गोशाला के पूर्व जन्मों के वर्णन के साथ महावीर के साथ उसका व्यवहार, मूर्खता, अंहकार एवं भिन्न सम्प्रदाय के प्रारंभ को गुम्फित कर लिया है। मुख्य कथा के साथ गोशाला की कथा का सम्बन्ध अन्त तक बना रहने से इसका महत्व रहता है। छठे काण्ड में भी महावीर की समाधि-स्थिति तपश्चर्या एवं प्राणी मात्र के कल्याण हेतु चिन्तन-प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। इस सर्ग में महत्वपूर्ण अवान्तर कथाओं में कौशाम्बी नगरी के शतानिक राजा और रानी मृगावती की, दधिवाहन राजा और धारिणी देवी की, चंदना के दुर्भाग्य की 1. द्रष्टव्य-कवि मूलदास कृत-'वीरायण' तृतीय खण्ड 125वां पद।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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