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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन 187 परिषहजप को कर्मात्रय-निरोध के लिए आवश्यक माना है। संवर क्रिया पर विचार करते हुए इसमें इनका उल्लेख किया है। ये सम्यक् चरित्र के अत्यावश्यक अंग हैं। जैन धर्म में दस प्रकार के धर्मों को आचरणीय माना है, ये हैं क्षमा, मार्दव (मृदुता), आर्जन्य (सरलता), साध, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनत्व और ब्रह्मचर्य (तत्वार्थ सूत्र 9.6) इस दशांग-शोभी धर्म का रूप 'वर्द्धमान' की इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है क्षमा, दया, संयम, सत्य, साध से, तपाऽऽजैव-त्याग-विराग भाव से कि युक्त जो मार्दव, ब्रह्मचर्य से दशांग शोभी जिन धर्म रूप है। 28-95 अनित्य-अशरण-संसार, अन्वत्व, अशुचि, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि और धर्म के चिंतनस्वरूप जो द्वादश अनुप्रेक्षाएं जैन धर्म में मान्य हैं, उन सभी का विस्तृत विवेचन 'वर्धमान' महाकाव्य के तेरहवें सर्ग में हुआ है। पूरा तेरहवाँ सर्ग दार्शनिक सिद्धान्तों के काव्य मय निरूपण से अंकित है और इन सिद्धान्तों को जैन दर्शन की विशिष्टताओं को समझे बिना थोड़ा-सा कठिन है। जबकि सामान्य व्यवहारिक गुण-धर्मों एवं सनातन सत्यों पर जहाँ प्रकाश डाला गया है, वहाँ सरलता से बोध-ग्रहण हो पाता है। जैन दर्शन में लोभ, क्रोध, मान का त्याग करने के लिए कहा गया है। तदनन्तर मनुष्य कर्मों की निर्जरा कर पाता है। कवि ने भी क्रोध के बुरे परिणाम रूप पतन की चर्चा की है। महावीर की वाणी क्रोधरहित है, उसे सदा पदार्थ चाहिए। और जब मनुष्य ने क्रोध छोड़ दिया तो फिर शान्ति ही शान्ति न क्रोध हो तो फिर पाप भी नहीं, न कोप हो तो अभिशाप भी नहीं न मन्यु हो तो न अमान भी कहीं, न रोष हो तो न अशान्ति भी कहीं। पृ. 53, 58 माया के प्रमुख अंग रूप 'लोभ' के विषय में कवि कहते हैं। प्रसूति है लोभ महान वैर की, प्रसिद्ध क्रोधादिक का पिता यही। जैन धर्म के मार्ग के सम्बन्ध में कवि के विचार कितने उच्चकोटि के हैं ऐसा मार्ग प्रशस्त है, न जिसमें है भ्रान्ति-शंका कहीं, छायी अम्बर मध्य जैन मत की आनंद कादम्बिनी। देती सौरम्य बसन्त के पवन-सी समायिकी साधना, काम-क्रोध मदादि कंटक बिना सन्मार्ग धर्म का।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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