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________________ 188 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य भगवान महावीर मानसिक विकारों को त्यागने के लिए सिशंदता से उपदेश देते हैं। तथैव करुणा की विशेषता बताते हुए उसकी महमिा का वर्णन 'वर्धमान' में पाया जाता है। दया, प्रेम, ममता, सौख्य, समताभाव और प्राणीमात्र के प्रति अहिंसापूर्ण व्यवहार के लिए प्रभु मानव से अनुरोध करते हैं दया नरों की परम हितैषिणी, यही महासम शोध ज्ञान है, अहो! दयाहीन मनुष्य विश्व में पवित्र-चारित्र्य प्रभाव शून्य है। महाकवि अनूप जी ने महावीर के द्वारा जैन दर्शन के प्रमुख तत्वों-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, और ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा करवाकर रात्रि-भोजन-त्याग, कर्मों की निर्जरा, रति-मैथुन-स्वभाव, प्रमाद आदि त्यागों पर जोर दिया हैक्योंकि शरीर है निर्बल, काल निर्दयी प्रभु ने धर्म सभा में सामान्य मानवोचित् सद् व्यवहार, सद्भावना का ज्ञान मनुष्यों को दिया, जो उन्हें सहज, सरल रूप से ग्राह्य हो सके। प्रभु सच्चे ब्राह्मणत्व के विषय में भी उचित ही कथन करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मण शास्त्र में व लोक में किसे स्वीकृत किया जाता है, इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं। न स्वप्न में भी कहता असत्य है, तथैव पूजा-रत ब्रह्म ध्यान में, न लोभ-क्रोधादिक के अधीन जो, वही सुना ब्राह्मण शास्त्र में गया। 531-25 तपोधनी, इंद्रिय निग्रही तथा महाव्रती, पीड़ित लोक-ताप से, नितं मिला संगम, आत्म शान्ति का, कहा गया ब्राह्मण श्रेष्ठ वही। (पृ. 530-23) कवि अनूप जी 'केवल ज्ञान' प्राप्त, विकार, विजेता, वीतारागी प्रभु महावीर को अपनी श-शत श्रद्धांजलि युक्त नमन करते हैं। नमन क्रिया का पुनः-पुनः उच्चारण करके कवि प्रभु की 'महावीरता' के जयघोष करते हैं। पूरा विश्व प्रभु की स्तुति वंदना करता है नरेन्द्र हो केवल ज्ञान राज्य के, महेन्द्र हो भू-अवतीर्ण-स्वर्ण के, प्रचार कर्ता नव-धर्म-तत्व के नमामि हे नाथ! समस्त विश्व के।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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