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________________ 186 वही क्रिया संवर नाम - धारिणी विमुकित संपादन में अमोध है । - 13-78 संवर के उपरान्त 'निर्जरा' नामक स्थिति आती है। जीव में प्रविष्ट हुए कर्मों को तपस्या आदि से नष्ट कर देना ही 'निर्जरा' है। यह दो प्रकार की होती है। । - अकाम निर्जरा और सकाम निर्जरा - है । यम धारण करने वाले योगियों की निर्जरा सकाम होती है तथा अन्य प्राणियों की निर्जरा अकाम अर्थात् स्वतः होने वाली होती है। महाकवि अनुप ने निर्जरा और भेदों का वर्णन वही विशिष्टता से किया है। 'निर्जरा' के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए उसे भक्ति - प्राप्ति में सहायक मानते हुए वे लिखते हैं आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य यथा यथा योग तपादि यत्न से, करे यती नित्य स्व-कर्म निर्जरा, तथा - तथा ही उसके समीप में, अदृश्य आती शुभ मोक्ष - इन्दिरा । अतीत से संचित कर्मराशि का, विनाश होना अविपाक निर्जरा, कही नई सिद्ध मुनीन्द्र से सदा, अवश्य ही संग्रहणीय साधना । तथा कर्मों की निर्जरा करने से मनुष्य मुक्ति पाने में सफल हो सकता है। यथा के, स्वभाव से ही वह, जो मनुष्य स्वतंत्र कर्मोदय-काल में उठे, सदा परित्याग करे स-यत्न सो, विकार - युक्त सविपाक निर्जरा। 13-78 कर्माश्रवों के निरोध और मुक्ति की अवाप्ति के लिए साधनों का वर्णन जैन ग्रन्थों में हुआ है, उनका सांकेतिक उल्लेख इस महाकाव्य में मिल ही जाता हैं। जिन-धर्म में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और चरित्र इन त्रि-रत्नों को मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है। (सम्यग्दर्शन ज्ञानचरित्राणि मोक्ष मार्गः । तत्वार्थ सूत्र, 1,1 ) 'वर्द्धमान' में त्रिरत्न के प्रकाश की छाया इस प्रकार दिखाई देती हैअमोघ रत्नत्रय के प्रभाव से, अवाप्त होती वह मुक्ति जीव को, आनन्द आनन्द समुद्र - रूपिणी प्रसिद्ध है जो जिन - धर्म - ‍ - शास्त्र में। 13-30 जैन धार्मिकों ने दशांग धर्म द्वादश अनुप्रेक्ष्या, पंचमहाव्रत, द्वाविशति
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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