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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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होता है ये पुद्गल इसलिए कहलाते हैं कि इनका संघटन और विघटन संभव है। (पूरयन्ति, गलनित-सर्वदर्शन संग्रह-आहृत दर्शन) विशिष्ट प्रकार के शरीर के लिए विशिष्ट प्रकार के पुद्गलों की आवश्यकता होती है। इन पुद्गलों का संचय मनुष्य के कर्मों के अनुसार होता है। “जीव की ओर कितने तथा किस प्रकार के पुद्गल कण आकृष्ट होंगे, यह कर्म या वासना पर निर्झर है। ऐसे पुद्गल कण को कर्म पुद्गल का नाम दिया जाता है इसी को कर्म भी कहते है। जीव की ओर जो कर्म पुद्गलों का प्रवाह होता है, उसे 'आस्रव' कहते हैं"' क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय ही कर्म पुद्गलों के प्रवाह या आस्रव के कारण है। इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार कषायों के कारण जीव का कर्मानुसार पुद्गलबद्ध होना ही 'बन्धन' है। जैसा कि उमास्वाति जी कहते हैं 'सकषायत्थात जीवः कर्मणो योग्य पुद्गलान् आवानै स वन्यः। महाकवि अनूप शर्मा भी आश्रम के सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए 'वर्द्धमान' में लिखते हैं
सा राग आत्मस्थित राग भाव से, समागता पुद्गल राशि कर्म हो। शरीर में आगत दुःख-दायिनी, प्रसिद्ध है आम्रव नाम से सदा। 65.391
जब तक जीव की ओर कर्माश्रय होता रहता है, तब तक जीव का मुक्ति पाना असंभव है
सलील साश्रय हो किस कूप में विगत मीर जमता नहीं, इस प्रकार स-कर्म मनष्य को,
कब अवाप्त हुई गति निर्जरा ? (64-391) संचर-निर्जरा :
जैन धर्म मोक्ष के लिए दो कारण मानते हैं-संवर और निर्जरा। गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्ष्या, परिवह, तप, चारित्र्य आदि के द्वारा आश्रव क्रिया संभव हो सकती है। आलोच्य महाकाव्य में संवरा मिचैया क्रिया का वर्णन इसी प्रकार मिलता है
मुनिस योग-व्रत-गुप्ति आदि से स-यत्न कर्माश्रव-द्वार रोकते,
1. भारतीय दर्शन : डा० दत्त एवं चटर्जी, पृ० 69. 2. उमास्वाति-तत्यार्थ सूत्र, पृ० 8, 90. 3. वही।