________________
184
आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
अतः स्वाभाविक है कि उनकी दार्शनिकता को भी कवि ने इसमें चर्चित किया है। हमारे जीवन-विकास की राह में दार्शनिक विचारधारा जाने-अनजाने प्रभाव डाले बिना नहीं रहती। किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बंधित साहित्य में तो दार्शनिक विश्लेषण स्फुट होगा ही। 'वर्द्धमान' में जहाँ एक ओर कवि ने गूढ़ आध्यात्मिक सिद्धान्तों की चर्चा करके त्रि-रत्न, आस्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष, निर्जरा, कर्म, जीव-सजीव, पाप-पुण्य के सैद्धांतिक विषयों पर प्रकाश डाला है, वहाँ लौकिक धर्म की चर्चा भगवान महावीर से करवाकर धर्म के व्यावहारिक पक्ष का भी समर्थन किया है। ऐसे प्रसंग बोझिल न बनकर आत्म-विकास के साथ मानव-कल्याण के लिए सदैव प्रेरित करते हैं। जहाँ शास्त्रीय सिद्धान्तों की चर्चा अधिक हुई है, वहाँ यात्किचित् निरसता भी आ गई है। क्योंकि सूक्ष्म सैद्धांतिक ज्ञान सबके सामर्थ्य की बात नहीं होती, न ही सभी के हृदय की रसात्मक वृत्ति के अनुकूल होता है। 'वर्द्धमान' जैसे महाकाव्य में जैन दर्शन का विस्तृत विवेचन हुआ है। वास्तव में इसके रचयिता का उद्देश्य जैन दर्शन के सिद्धान्तों को काव्य में निरूपित करना रहा हैं जीव, सजीव, आश्रय, संवरबन्ध, निर्जरा, मोक्ष आदि जिन सात तत्वों का वर्णन जैन दार्शनिकों ने किया है, उन सभी का विवेचन आलोच्य महाकाव्य में हुआ है। यहाँ हम जैन दर्शन के सैद्धांतिक पक्ष की चर्चा के उपरान्त व्यावहारिक पक्ष को अनूप जी ने किस प्रकार आकर्षक शैली में गुम्फित किया है, इसका विवेचन करना चाहेंगे।
जैन दार्शनिक इन तत्वों को दो रूपों में विभक्त करते हैं-अस्तिकाय द्रव्य तथा अनस्तिकाय द्रव्य। अस्तिकाय द्रव्य दो प्रकार के होते हैं जीव और सजीव तथा अनस्तिकाय द्रव्य केवल 'काल' है। जीव चेतन द्रव्य है और धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चार सजीव के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार पाँच अस्तिकाय के तत्व और एक-अनस्तिकाय (काल तत्व) को मिलाकर छः द्रव्य जैन-दर्शन में प्रसिद्ध हैं। आस्रव और बन्धन :
जैन दर्शन की तरह अधिकांश दर्शन यह मानते हैं कि जीव अपने वास्तविक रूप में शुद्ध-बुद्ध चेतन है, परन्तु देह के बन्धन में पड़कर अनेक प्रकार के दुःख भोगता है। जैन दर्शन चैतन्य जीव के बंधन पर अपने ढंग से विचार करता है। जैन-दर्शनानुसार शरीर का निर्माण जड़ तत्वों (पुद्गलों) से. 1. डा. वीणा शर्मा-आधुनिक हिन्दी महाकाव्य के अन्तर्गत 'महाकाव्य में दर्शन की
धारा', शीर्षक अध्याय, पृ. 267.