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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
अभिव्यक्त करने में उद्दीपक के रूप में चित्रित है। प्रेमी सिद्धार्थ अपनी सौन्दर्यवती रानी त्रिशला के देह - सौन्दर्य से प्रभावित होकर उनका नख-शिख वर्णन करते हैं, तब प्रकृति भी मानो उनकी सहायता के लिए वर्षा ऋतु का रूप धारण करती है। आषाढ़ के काले बादलों में दामिनी लुक-छिप अपना उज्ज्वल स्मित अंकित करती है। कवि वर्षा ऋतु का कमनीय चित्र अंकित करते हैं कि
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अनूप आषाढ़ घनावली घनी, घिरी हुई थी अति मोद - दायिनी निसर्ग-संपत्ति - विधायिनी मुदा मनोज्ञ वर्षा ऋतु वर्तमान थी ।
मनोज्ञ - हस्ती - सम वारि वाह थे, बलाक - श्रेणी सित दंत-पंक्ति थी, विराजती अंकुश - सी क्षण - प्रभा झड़ी बंधी मंजु मदाम्बु- धार की। सु- कामिनी जो अब मानिनी रही, मनोज्ञ की है अपराधिनी वही । चतुर्दिशा - दामिनी व्याज व्योम में - घोषणा ।'
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समा गयी काम - नृपाल - घ
शयन कक्ष में तन्द्रावस्था में सोई हुई त्रिशला वर्षा के उद्दीपक मोहक वातावरण में सिद्धार्थ की आसक्ति को तीव्र बना रही थी
नरेन्द्र भी यौवन युक्त है तथा बहु महा-प्रौढ़ पयोधरा लसी, इसीलिए संगम लालासान्विता तरंगिणी - सी त्रिशला लसी तभी ।
पयोद गर्जे - जलधार भी गिरे, तडिल्लता अम्बर में अशान्त हो, महीप को क्या था, निकेत में प्रिया महा औषधि सी विराजती। 2
जिस प्रकार पयोधर अंक में मचलती तड़िता अनुरक्त हो
1.
अनूप शर्मा - वर्द्धमान, पृ० 77-15-16, 17.
2. अनूप शर्मा - ' वर्द्धमान', पृ० 80-27-80.