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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन 179 कहीं किसी शाद्वला में विराजते कुरंग थे संग कुरंगिनी लिये। करेणु खाता फल सल्लकी मुदा, वरेणुका थी उसको खिला रही, समीप ही वारण गर्जते हुए। बना रहे कानन शब्द-युक्त थे। कहीं-कहीं हंस तडाग-तीर पे, महान गंभीर जहां कमन्ध था, वहां प्रसन्नता ध्वनि थे सुना रहे, विलासिनी-नुपुर-तुल्य मंजुला। ऋजुबालिका नदी की सुंदरता, गंभीरता एवं महत्ता का वर्णन पूरे दसवें सर्ग में किया गया है। इसके सुरम्य तट पर कुमार वर्द्धमान जीवन-मृत्यु, संसार की क्षणिकता तथा मृत्यु की नित्यता आदि पर गंभीरता से सोचते-विचारते हैं। प्रारम्भ में कवि ने नदी की स्वच्छता-शीतलता एवं तट की रम्यता का शब्द-चित्र सा खींचा है समीप ही क्षत्रिय-कुण्ड ग्राम के, प्रवाहिता थी ऋजुबालिका नदी, कभी-कभी वीरकुमार जा वहां, प्रसन्न नैसर्गिक दृश्य देखते हिमाद्रि से उद्गमिता तरंगिणी प्रवाहिता मंद-जवा मनोहरा प्रभात संध्या ध्वनि नीर की जिसे बही चली आ ऋजु बालिके! प्रिये! बढ़ी चली आ सहसा पयोगिधे। प्रवाह तेरा कमनीय कान्त है समीप तेरा बहुधा प्रशान्त है। उद्दीपन रूप : द्वितीय सर्ग में प्रकृति राजा सिद्धार्थ एवं रानी त्रिशला के प्रगाढ़ प्रेम को 1. देखिए-वर्द्धमान-महाकाव्य, पृ. 258-5-7-9. 2. देखिए-वर्द्धमान-महाकाव्य, पृ. 287-288, 1-2, 14.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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